SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त [ वर्ष ४ आदिसे इतने सुखी थे कि कभी किसीको किसी दूसरे को भी संमव कर दिखाते हैं । यही बात है कि कविकी वस्तुको चुगने की इच्छा नहीं होती थी-जो जिस राज भी आगेके श्लोकमें आकाशगत सुवर्ण कमलों वस्तुका पाना चाहता था उसे वह वस्तु अनायास- का संभव कर दिखाते हैं। देखियेस्वयमेव प्राप्त हो जाती थी। यनेन्दुपादै, सुरमन्दिरेषु, लुप्तेषु शुद्धस्फटिकेषु नकम् । यह वर्णनीय वृत्त साधारण है परन्तु कविके चक्र स्फुटं हाटककुम्भकोटि-नभस्तलाम्भोरुहकोशशङ्काम् ।। परिसंख्या अलंकारनं उसकी शोभाको बहुत मोहक --'द्वारावती नगरीमें रातक समय, निर्मल स्फटिकबना दिया है। मणियोंके बने हुए देवमन्दिर चन्द्रमाकी सफेद सुगन्धिनः संनिहिता मुखस्य, स्मिता ता विच्छुरिता वधूनाम् । किरणों द्वारा लुप्त कर लिये जाते थे-सफेद मंदिर भृङ्गा बभुर्यत्र भृशं प्रसून-संक्रान्तरेणूकरकरा वा ॥४५॥ सफेद किरणोंमें तन्मय हाकर छिप जाते थे, सिर्फ स्त्रियोंके मुखोंकी सुगन्धिके कारण जो भौरे उनके उन मन्दिरोंके सुवर्ण-निर्मित पीले पीले कलशे दिखपास पहुँच जाते थे वे भौंरे उन स्त्रियोंकी मुसकानकी लाई पड़ते थे उनसे यह स्पष्ट मालूम होता था कि सफेद कान्तिसे व्याप्त होनेपर ऐसे मालूम होते थे, आकाशमें सुवर्ण-कमल फूले हुए हैं। (भावानुवाद) जैसे मानों फूलोंके परागके समूहसे कर्बुर-चित्र श्लेष और उत्प्रेक्षा संवर-मेलका उदाहरण विचित्र हो गये हों। देखियेयहाँ तद्गुण तथा उत्प्रेक्षाका संकर दर्शनीय है। यमैक वृत्तेर्धन वाहनस्य, प्रचेतसो यत्र धनेश्वरस्य । सुभ्र युगं चंचलनेत्र वाहं, यस्यां स्फुरत्कुण्डल चारु चक्रम्। व्याजेन जाने जयिनो जनस्य, वास्तव्यतां नित्य मगुर्दिगीशाः ।। आरुह्य जातस्त्रिजगद्विजेता, वधूमुखस्यन्दनमङ्ग जन्मा ॥ २२॥ 'उस द्वारावतीके रहने वाले मनुष्य यमैकवृत्ति दाना 'जो, उत्तम भौंह रूप युग-जुंवारीसे सहित है थे-अहिंसा आदि यम-व्रतोंको धारण करने वाले थे (पक्षमें उत्तम भौंहोंके युगलसे सहित हैं) चञ्चल नत्र (पक्षमें यमराजकी मुख्य वृत्तिको धारण करने वाले थे) रूप बाहो-घोड़ोंसे युक्त हैं (पक्षमें चञ्चल नेत्रोंको घनवाहन थे-अधिक सवारियोंसे युक्त थे (पक्षमें प्राप्त है) और जो कुण्डल रूपी सुन्दर चक्र-आयुध इन्द्र थे), प्रचेतस थे-प्रकृष्ट-उत्तम हृदयको धारण विशेषसे शोभित हैं (पक्षमें चमकते हुए कुण्डलोंकी वरने वाले थे (पक्षमें वरुण थे) और धनेश्वर थेचारु परिधिसे सहित हैं)-ऐसे स्त्रीके मुखरूपी रथ धनके ईश्वर थे (पक्षमें कुबेर थे। इसलिये मैं समझता पर आरूढ़ होकर कामदेव जिस द्वारावती नगरीमें हूं कि वहांके मनुष्योंके छलसे चारों दिशाओंके तीनों लोकोंका जीतने वाला बन गया था।' दिक्पालोंने उस नगरीको अपना निवासस्थान बनाया यहाँ 'युग' 'वाह' और 'चक्र' शब्दके श्लेषसे था।' अनुप्रीणित वधू मुख और स्यन्दन-रथका रूपक दक्षिण दिशाके स्वामीका नाम यम, पूर्व दिशा विशेष दर्शनीय है। के स्वामीका नाम धनवाहन-इन्द्र, पश्चिम दिशाके लोग कहते हैं कि कवियोंके सामने कोई भी वस्तु स्वामीका नाम धनेश्वर-कुबेर है]। असंभव नहीं है वे अपनी कल्पनासे असंभव वस्तु इस प्रकार कविराजने बहुत ही सुन्दर रीतिसे
SR No.527177
Book TitleAnekant 1941 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1941
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy