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________________ अनेकान्त [वर्षे ४ गणधर-चक्रधरेन्द्रप्रभृतिमहाभव्यपुंडरीकैः पुरुषः । बहुभिः स्नातं भक्त्या कलिकलुषमलापकर्षणार्थममेयम् ॥ ७॥ अवतीर्णवतः स्नातुं ममापि दुस्तर समस्तदुरितं दूरम् । ...---- व्यवहरतु परमपावनमनन्यजय्यस्वभावभावगम्भीरम् ॥८॥ -चैत्यभक्तिः 'अरईतरूपी महानदका तीर्थ (द्वादशांग श्रुतानुसारी शुद्ध जैनधर्म) तीन लोकके भव्यजीवरूपी यात्रियोंके दुरितों को प्रक्षालन करनेका-पाप मलोंको धोनेका-अद्वितीय कारण है। अर्थात् सांसारिक महानद तीर्थ जब कतिपय जीवोंके शारीरिक बाह्यमलका ही धोने में समर्थ होता है-अन्तरंग पापमलको धोना उसकी शक्तिसे बाहर है-तब अरहंतरूपी महानदतीर्थ त्रिलोकवर्ती समस्त भव्यजीवोंके द्रव्य-भावरूप समस्त पापमलोंको धो डालनेमें समर्थ है-इसके प्रभावसे श्रात्मा रागदुषादि विभावमलसे रहित होकर अपने शुद्धचैतन्य-स्वरूपमें स्थिर होजाता है । यह महानद लोकमें प्रसिद्ध हुए दम्भादिप्रधान कुतीर्थीको अतिक्रान्तकर चुका है-उनके स्वरूपका उल्लंघन करनेसे दंभादि रहित है-श्रतएव उत्तमतीर्थ है।॥१॥ जिस तीर्थ में लोक और अलोकके यथार्थ स्वरूपको जानने में समर्थ दिव्यज्ञानका-केवलज्ञानका-प्रतिदिन प्रवाह वह रहा है, और निर्दोष व्रत तथा शील ही जिसके दोनों निर्मल विशाल तट हैं-किनारे हैं ॥२॥ जो तीर्थ शुक्लध्यानरूप निश्चल शोभायमान राजहंसोंसे विराजित है-शुक्लध्यानी मुनि पुगवरूप राजहंसोंकी स्थिर स्थितिसे जिसकी शोभा बढ़ी हुई है, जहाँपर स्वाध्यायका निरन्तर ही मनोज्ञ नाद (शब्द) रहता है तथा जो नाना प्रकारके गुणों, समितियों और गुप्तियों रूप सिकताओं (बालू रेतों) से मनोग्य है--सुन्दर है ॥३॥ जिस तीर्थ में क्षमा-सहिष्णुतारूपी सहस्रों श्रावर्त उठ रहे हैं, जो सर्व प्राणियोंकी दयारूप विकसित पुष्पलताओंसे सुशोभित है और जहाँ दुस्सह क्षुधादि परीषह रूपी शीघ्र फैलती हुई तरंगोंका समूह विनश्वररूपमें-उत्पन्न हो होकर नाश होता हुआ देखा जाता है ॥४॥ ___ जो तीर्थ कषायरूपी फेनसे-झागसे रहित है, राग-द्वेषादि दोषरूपी शैवाल जिसमें नहीं है, मोहरूपी कर्दम (कीचड़) से जो शून्य और मरणोरूपी मकरोके समूहसे भी विहीन है ॥५॥ जिस तीर्थ में ऋषि पुगवों-गणधरदेवादिकोंके द्वारा की गई स्तुतियों एवं शास्त्रपाठकी मधुर ध्वनिरूपी अनेक पक्षियोंका सुन्दर कलरव है, विविध प्रकारके तपोके निधानस्वरूप मुनीश्वर ही जहाँ पर पुल हैं-संसाररूपी सरित्यवाहमें वहने वाले जीवोंके लिये उत्तरण स्थान हैं और जहाँ कर्मास्रवके निरोधरूप संवरसहित उपार्जित एवं संचित कर्मोंके लिये निर्जरा रूप निर्गमस्थान हैं ॥६॥ इस प्रकारके जिस महान् तीर्थमें गणधर-चक्रवर्ती श्रादि बहुतसे महान् भव्योत्तम पुरुषोंने कलिकालजन्य मल को दूर करनेके लिये भक्तिपूर्वक स्नान किया है ॥७॥ उस परम पावन अर्हन्महानद तीर्थ में, जोकि परवादियोंके द्वारा सर्वथा अजेयस्वभावरूप जीवादि पदार्थोसे गम्भीर है-अगाध है--,मैं भी स्नान करनेके लिये--अपना कर्ममल धोनेके लिये-अवतीर्ण हुअा हूँ--उसमें अवगाइनका मैंने दृढ़ संकल्प किया है। अत: मेरा भी वह सम्पूर्ण दुस्तर कर्ममल पूर्णतया दूर होवें--इस तरह के निर्मूल नाशको प्राप्त होवे कि जिससे फिर कभी उसका संग मुझे प्राप्त न होसके ॥८॥' -परमानन्द जैन शास्त्री
SR No.527177
Book TitleAnekant 1941 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1941
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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