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________________ किरण ८] सयु० स०पर लिखे गये उत्तरलेखकी निःसारता ४४१ होनेसे उसे प्रथमाका द्विवचन न मानकर सप्तम्यन्त दूरवर्ती 'भाष्यका' का विशेषण नहीं हो सकता किंतु पद मानना ही उचित है । दूसरे, यदि उसको प्रथमा निकटवर्ती 'सत्र' का ही हो सकता है। दूसरे, उस का द्विवचन मान भी लिया जाय तो वह 'सूत्रभाष्य' पदको 'सप्तम्यन्त' ही माननेका यदि आग्रह हो तो पदका विशेषण होनेसे यह अर्थ होगा कि तत्वार्थसूत्र वह पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारके कथनानुसारक और भाष्य ही 'अर्हत् प्रवचन' हैं-दूसरे आगमादि षष्ठी तत्पुरुषका ही रूप सबसे प्रथम संभवित है; ग्रंथ अर्हत्प्रवचन नहीं हैं। आगमादि ग्रंथांके साथ कारण कि शीघ्र शाब्दबोधकतामें षष्ठीतत्परुषकी वह 'अर्हत् प्रवचन' शब्द देखा भी नहीं जाता। अतः तरफ़ सबसे पहले दृष्टि जाती है. और तब उस पदका ऐमा महान् अनथ न हो जाय इसके लिये ही 'तत्वा- अर्थ यह हो जाता है कि-'उमास्वाति वाचक-विरर्थाधिगमे' पदके पूर्व 'अर्हत् प्रवचने' पद विन्यस्त चित तत्वार्थसत्रके भाष्यमें'। इस अर्थस यह स्पष्ट किया गया है, जिसका तात्पर्य यही है कि वह पद प्रतीत होता है कि भाष्यकर्ता तत्वार्थसूत्रकर्तासे जुदे सप्तमीका ही समझा जाय और इस तरह उससे कोई हैं । अनः कहना होगा कि दोनों विभक्तियोंमेंसे काई अनर्थ घटित न होजाय। भी विभक्ति लीजाय-परंतु प्रो० सा० की एककर्तृत्व इसी प्रकरणमें पो० साहबने एक बात यह भी की अभीष्ट सिद्धि किसीसे भी नहीं बन सकती। पूछी है कि "उस भाष्यका कर्ता कौन है जिस पर दूसरे, 'तुष्यतु दुर्जनन्यायसं' यदि यह मान भी ग्रंथकार टीका लिग्व रहे हैं ?" इसका जवाब ऊपर लिया जाय कि सिद्धसन गणी दोनोंका एक कर्तृत्व ही आ चुका है, जिसका आशय यह है कि भाष्यमें मानते थे' तो वे आपके मतानुसार भले ही मानें, उन कारिकाओं के विपरीत 'वक्ष्यामः' जैसे बहुवचनान्त के माननेकी कीमत तो तब होती जब कि वे उस क्रियापदोंका प्रयोग पाया जाता है, इसलिये भाष्यके विषयमें किसी प्रबल हेतुका स्पष्ट उल्लेख करते; परन्तु कर्ता उमास्वाति न होकर कोई दूसरे ही हैं और वे उन्होंने वैसा कोई उल्लेख किया नहीं तथा भाष्यकार संभवतः अनेक हैं। स्वतः अपनेसे सूत्रकारको जुदा सूचित करते हैं, तो फिर इस प्रकरणमें 'उमास्वातिवाचकोपज्ञसत्रभाष्ये' ऐसी दशामें सिद्धसेनगणीकी वैसी मान्यताकी कीमत पदको लेकर द्वंद्वसमासगत सप्तमी विभक्ति माननेकी भी क्या हो सकती है और उससे भाष्यविषयक जो आपकी धारणा थी उसका खंडन ऊपर अच्छी प्रचलित संदिग्धताका निरसन भी कैसे बन सकता है ? तरह किया जा चुका है अर्थात् वह पद वहाँ सप्तमीके इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं। रूपमें ठीक बैठता नहीं किंतु प्रथमाका द्विवचन ही अतः इस दूसरे प्रकरण में भी उत्तररूपसे जो ठीक बैठता है। कदाचित् उसे सप्तमीका एक वचन बातें कही गई हैं उनमें कुछ भी सार नहीं है और भी माना जाय तब भी वह हो उत्तर उस पक्षमें दिया न उनके द्वारा भाष्यको 'स्वोपज्ञ' तथा 'अहत्प्रवचन' जा सकता है, क्योंकि समाहारद्वंद्व में वह सप्तमीका ही सिद्ध किया जा सकता है । एक वचनान्त माना जा सकेगा तो वहाँ संदिग्ध *विशेष ऊहापोहके लिये देखो 'अनेकांत' वर्ष ३ कि० १२ अवस्थामें 'उमास्वातिवाचकोपज्ञ' यह विशेषण पृ० ७३५ पर परीक्षा नं. ३
SR No.527177
Book TitleAnekant 1941 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1941
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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