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________________ भारतीय दर्शनमें जैन- दर्शनका स्थान वर्ष ३, किरण ७ ] तपस्याके आकर्षण ही जैनों तकको बौद्धमत ग्रहण करने में प्रवृत्त किया था। मैं हूँ यह सभी अनुभव करते हैं, कौन इस बातको नहीं समझता कि मैं केवल निःसार छाया नहीं हूँ और सत्य हूँ । आत्मा अनादि अनंत है यह तो उपनिषदोंकी हर एक पंक्ति में बड़े ही चमकने वाले रूपमें अति हैं । वेदान्त दर्शन भी इस तत्वकी दिगन्त मुखरित करनेवाली आवाज से जोरोंके साथ प्रचार कर रहा है। आत्मा हैं आत्मा सत्य है, वह सृष्ट पदार्थ नहीं किन्तु अनन्त है, आत्मा जन्म-जन्मान्तर ग्रहण करता चला आरहा है, सुख और दुःखका भोक्ता है, ऐसा अवश्य प्रतीयमान होता है; किन्तु यह सत्ता है, असीम ज्ञान और आनन्दके सम्बन्ध में भी उसे असीम और अनन्त ही समझना होगा । वेदान्तका यही मूल प्रतिपाद्य विषय है । आत्माकी असीमता और अनन्तत्वको जैन-दर्शन भी स्वीकार करता है, इसीलिये यहाँ जैन-दर्शन और वेदान्त दर्शन में किसी प्रकारका विरोध नहीं पाया जाता । [ ४७३ और विश्व का उपादान "वह" मैं उससे भिन्न नहीं, कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं, यह दिखलाई पड़ने वाला अनन्त जगत यद्यपि मुझसे अलग सा जान पड़ रहा है, वह भी उससे अलग स्वतन्त्र कोई सत्ता नहीं, एक अद्वितीय सत्ता वह तुम हम चिदाचिद भाव उस 'सत्यस्य सत्यम्' से सम्पूर्ण रूपसे अपृथक ही हैं । बौद्ध दर्शनके निरात्मवादके प्रति आक्रमण और आत्मा अनन्त सत्ताको स्वीकार करने के कारण ही जैनमत और वेदान्तमत में कोई भेद नहीं जान पड़ता, फिर भी ये दोनों एक नहीं है । वदान्तिक जीवात्माकी सत्ताको केवल स्वीकार ही नहीं करते, बल्कि दर्शन जगत् में वे और भी कुछ आगे बढ़कर निर्भीक रूप में जीवात्मा और परमात्मा का अभेद प्रचार किया करते हैं । वेदान्तमतके अनुसार यह चिदचिन्मय विश्व उसी एक और अद्वितीय सत्ताका विकासमात्र है । "मैं," "वह" वेदान्तका एकमेवाद्वितीय' वाला सिद्धान्त निस्सन्देह बहुत गम्भीर और महान है, किन्तु साधारण मनुष्य के लिये इतने ऊंचे भावका ग्रहण एक कठिन विषय होजाता है। जीवात्मा एक सत्ता है, साधारण मनुष्य यह तो अवश्य अनुभव करते हैं; किन्तु एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में कोई भेद नहीं, मन, जड़ पदार्थ और अन्यान्य देख पड़नेवाली सभी वस्तुओंमें कोई भेद नहीं, इस बातको वे स्वीकार नहीं करना चाहते । यदि कोई ज्ञानी पुरुष ऐसा सिद्धान्त करना चाहे कि वह दूसरे मनुष्यसे या अन्यान्य अचे. तन और चेतन भावोंसे भी स्वतन्त्र है और यह संसार चिचित् गणितभावोंसे परिपूर्ण है, तो उसके इस सिद्धान्तको युक्तिहीन नहीं कहा जा सकता, हम भी यही कहना चाहते हैं कि ऐसे सिद्धान्त कदापि युक्तिहीन नहीं हो सकते, बल्कि संसार के अधिकांश मनुष्य इस प्रकार के अनुभवगम्य सुयोग्य सिद्धान्तों को ही ग्रहण किया करते हैं, इसीलिये प्रायः वेदान्तमतको बहुत से लोग ग्रहण नहीं करना चाहते । कपिलके प्रसिद्ध सांख्यदर्शन के मतवादका भी बिचार यहाँ करना आवश्यक है । वेदान्तकी तरह
SR No.527162
Book TitleAnekant 1940 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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