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________________ एक जैसा है। यह पुराणों की प्रामाणिकता का श्रेष्ठ प्रमाण है। ऐसा प्रतीत होता है कि समस्त त्रिलोक संबंधी सूचनायें, काल संबंधी सूचनायें व अन्य सभी सूचनायें गुप्त भाषा मे है उन्हें अभी अनावृत होना शेष है। हमारे इतिहास ने इसी भौगोलिक पृष्ठ भूमि में जन्म लिया है। भूलना मनुष्य का स्वभाव है अतः सूचनायें व प्रतीकात्मक चित्र सदैव हमारी दृष्टि के सामने रहना चाहिए ताकि इतिहास की कड़ियाँ जोड़ने में कठिनाई न हो । पुराणों ने आदिनाथ, भरत, बाहुबलि, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ के प्रमाण सामने रखे तो आज शिलालेखों, पुरातात्विक प्रमाणों के साथ उन्हें जोड़कर इतिहास की धाराएं ढूंढने में मदद मिल रही है। अभी शलाका पुरुषों के पूर्वभवों के माध्यम से प्राचीन इतिहास को पहचानने का प्रयत्न प्रारंभ नहीं हुआ है। यह होते ही एक नयें संसार का द्वार खुल सकता है । पुराणों और परंपराओं का विवेचन किए बिना उन्हें अवैज्ञानिक की सीमा में डालना अविवेक पूर्ण होगा। इतिहास कोई भ्रमों का पुलिंदा नहीं है। वह मानव के कार्यकलापों का अभिलेख है। मनुष्य ने कब क्या किया और क्या सोचा-हजारों लाखों वर्ष पूर्व वह सब उसने आज के वैज्ञानिकों या इतिहासकारों से पूछ कर नहीं किया । ब्रहमाण्ड की गोद में सूरज चाँद के साये में पक्षियों कलरव व असंख्यात पशुओं, कीड़ों-मकोड़ो के क्रंदन, हलन-चलन के बीच अपने जीवन को मानव ने परभिाषित किया इस पर यह प्रश्न पैदा करना कि यह कब हुआ और उसे वर्षों में नापना सबसे बड़ा भ्रम पैदा करना है। ब्रह्माण्ड और प्राणी अनादिकाल से चले हैं और चलते रहेंगे। हाँ यह निश्चित किया जा सकता है कि कब, क्या ज्ञात रूप से किया और उसें वर्षों के कठघरे मे बांधा भी जा सकता है किंतु उसके पहले कुछ नहीं हुआ था यह अनुमान लगाना भी हो सकता है हमें सोच के गलत मार्ग की और ले जाए। दृष्टि यह होना चाहिए कि जिसका प्रमाण मिल गया है वह यह है और जो नहीं मिला है उसे खोजा जाना चाहिए। सृष्टि की निरंतरता इससे प्रभावित नहीं होती। हम यह कर सकते हैं कि जिसके प्रमाण मिल गये हैं उसे ज्ञात इतिहास कहें किन्तु जिसके प्रमाण हम अपनी क्षमताओं की सीमा के कारण नही जुटा पायें हैं उसे अप्रमाणिक नहीं कहें। उसे नकारें नहीं उसे भले ही आप श्रुत इतिहास या पौराणिक इतिहास कह सकते हैं। पुराणों का विकास भी ऐसा प्रतीत होता है दो आयामों में हुआ। पहला जब यह एहसास हो गया कि कुछ रिकार्ड ऋषियों की स्मृति में है उसका लोप होता जा रहा है तो उसे ग्रंथ रूप में एकत्रित/संकलित कर लिया जाय। दूसरा आयाम तब प्रारंभ हुआ जब जो इतिहास था उस पर अपनी मान्यताओं आग्रहों और सोच के आधार पर छेड़छाड हुई। कुछ पुराणकारों ने जो सिद्धहस्त कवि और लेखक थे कई पात्र ऐसे धरती पर उतारे जो आनंददुःख, ज्ञान-मूढ़ता, शौर्य-कायरता, चरित्र-दुश्चरित्र और सांसारिकता से परिपूर्ण थे। कई ऐसी घटनाओं को साकार किया गया जो प्राथमिक सूचनाओं पर तो खड़ी थी किंतु जिसमें कल्पना कौतूहल व तर्क का सम्मिश्रण कर दिया गया। इसने मूल सूचनाओं पर एक चादर सी ओढ़ा दी। मूल सूचनाओं को संकलित करने वाले पुराण भी शंकाओं के घेरे में आ गये । पर यह स्वाभाविक था। घटनाएं कई तरह जीवित रहती है। कभी कथा-कहानी कभी चरित्रों के माध्यम से और कभी परंपराओं के रूप में। आवश्यकता है इस अंतर को समझने की। हमें वैज्ञानिक अवधरणाओं ने भी कभी कभी भ्रमित किया है। इस कथन का तात्पर्य यह नहीं कि विज्ञान तर्क सम्मत नहीं है किंतु कभी कभी हम वैज्ञानिक उपलब्धियों से इतने अभिभूत हो जाते हैं कि मनुष्य की शक्ति से ऊपर उसे मानने लगते हैं । कम्प्यूटर की शक्ति बहुत है। आम मानवीय क्षमताओं से परे उसकी सामार्थ्य पर भारतीय गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजम ने अब से करीब एक अर्हत् वचन, 24 (1), 2012 53
SR No.526592
Book TitleArhat Vachan 2012 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2012
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size3 MB
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