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अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
वर्ष 24, अंक 1 जनवरी मार्च 2012, 5-7
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जिन पूजा एवं गंधोदक
■ आचार्य विद्यानन्द मुनि *
सारांश
जैन समाज में पूजा पद्धति के बारे में वर्तमान समय में चल रही निरर्थक भ्रांतियों के बारे में आगमोक्त स्पष्टीकरण एवं मार्गदर्शन प्रस्तुत आलेख में प्रदान किया गया है।
सम्पादक
पैरों पर चंदनादि के टीके लगाते हैं तो आप उसका निषेध क्यों करते हो ? 1 शब्द की व्युत्पत्ति और परम्परा का ज्ञान
आपने चरणों में चंदन लगाने का निषेध किया जबकि जयधवलाकार ने चंदन लगाना कथंचित् स्वीकार किया है। यथा 'छु हावण' 2
अर्थ- चन्दन लगाना ।
छुहावण शब्द संस्कृत शब्द से तद्भव हुआ। 'शुभावन' से 'छुहावण' बना है शुभा यानि सुगन्धित वृक्ष, अवन यानि नीचे लगाना अर्थात् सुगन्धित चन्दन को भगवान के चरणों में लगाना और वही अभिषेक के बाद वह धुल जाता है जो गन्धोदक कहलाता है ।
शब्दों की व्युत्पत्ति और परम्परा से आये आचार्यों के ग्रन्थ जब तक हम नहीं पढ़ेंगे तब तक कोई भी बात स्पष्ट नहीं होगी। जैसे 'पूजा' शब्द मूल में 'पूजे' शब्द था जो कि देशी ( द्रविड़ ) शब्द है पूया शब्द महाराष्ट्री प्राकृत शब्द है। पू का अर्थ फूल और 'जे' का अर्थ चढाना सामान्यतः पहले फूल चढ़ाने की पद्धति थी । कुन्दकुन्दाचार्य ने भी 'पूजेमि' शब्द का प्रयोग किया है। संस्कृत में 'पूजा' शब्द है जो कि अष्टद्रव्यादि से अर्चना के भाव दर्शाता है।
'चरू - बलि- पुप्फ-गंध-धूव-दीवादीहिं सगभत्तिपगासो अचण णाम । '
अर्थ- चरू बलि', अर्चना, पुष्प, फल, गंध, धूप और दीप (जल, अक्षत) आदिको से अपनी भक्ति प्रकाशित करने का नाम अर्चना है ।
'पूजन' का प्राकृत में 'पूयण' शब्द बनता है। इसका अर्थ इस प्रकार है
'गन्धमाल्याऽऽदिभिरभ्यर्चने । "
गंध शब्द का अर्थ चन्दन है और उससे मिश्रित जल गंधोदक कहलाता है। यथा
'गन्धप्रधाने श्रीखण्डादौ ।'
'श्री खण्डादिरसमिश्रे जले।"
शास्त्रों में जिनेन्द्र भगवान् के चरणों का गंधोदक लगाने का बहुत महत्व है। पं. फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री ने भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित ज्ञानपीठ पूजांजलि का सम्पादन करते हुए लघु अभिषेक पाठ में लिखा है
मुक्ति - श्री - वनिता - करोदकमिंद पुणङ्करोत्पादकं,
नागेन्द्र त्रिदशेन्द्र-चक्र- पदवी - राज्याभिषेकोदकम् ।
सम्यगज्ञान-चरित्र-दर्शनलता - संवृद्धि - संपादकं,
कीर्ति - श्री जय - साधकं तव जिन स्नानस्य गन्धोदक 112017
'अर्थ- हे जिन! आपके स्नपन का गन्धोदक मुक्तिलक्ष्मीरूपी वनिता के कर के उदक के
* दिगम्बर जैन मुनि परम्परा में दीक्षित, सर्वाधिक वरिष्ट आचार्य, राष्ट्रसंत, सम्पर्क : कुन्दकुन्द भारती 18-बी, स्पेशल इंस्टीट्यूशनल एरिया, महरौली रोड़, नई दिल्ली- 110067