SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैभारगिरिः तीर्थंकर की मूर्ति गुप्तयुग से लेकर बारहवीं शती ई. तक राजगृह (वैभार पहाड़ी और सोनभण्डार गुफा) में जैन मूर्तियों का निर्माण निरन्तर होता रहा। मध्य युग में जैन धर्म को किसी भी प्रकार का शासकीय समर्थन नहीं मिला जिसका प्रमुख कारण पालों का प्रबल बौद्ध धर्मावलम्बी होना था। इसी कारण इस क्षेत्र में राजगृह के अतिरिक्त कोई दूसरा विशिष्ट एवं लम्बे इतिहास वाला कला केन्द्र स्थापित नहीं हुआ। जिनों की जन्मस्थली और भ्रमण स्थली होने के कारण राजगृह पवित्र माना गया है । पाटलिपुत्र (पटना) के समीप राजगृह की स्थिति भी व्यापार की दृष्टि से महत्वपूर्ण थी। गुप्तकाल में जैन मूर्तियों की प्राप्ति का क्षेत्र विस्तृत हो गया। कुषाणकालीन कलावशेष जहां केवल मथुरा एवं चौसा से मिले हैं वहीं गुप्तकाल की जैन मूर्तियों मथुरा और चौसा के अतिरिक्त राजगृह, विदिशा, उदयगिरि, अकोटा, कहौम और वाराणसी में मिली हैं। राजगृह के वैभार पर्वत से ध्वस्त मंदिर की दीवारों में लगी कुल चार जिन मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। इन मूर्तियों में तीन तीर्थंकरों की खड़ी मूर्तियां बलुए पत्थर से निर्मित हैं । बालू पर पत्थर से बनी हुई मूर्तियों के स्कन्द भारी हैं और इनका मूर्तन भली प्रकार से नहीं किया गया है। काले पत्थर से निर्मित्त मूर्ति पद्मासन मुद्रा में बैठी है। आसन पद्मासन मुद्रा में नेमिनाथ अर्हत् वचन, 24 (1), 2012
SR No.526592
Book TitleArhat Vachan 2012 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2012
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy