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________________ । जैनों ने इस पर निर्मित चैत्यों (मंदिरों) में तीर्थंकरों की मूर्तियां स्थापित की थी।15 वैभारपर्वत पर एक ध्वस्त प्राचीन मंदिर की गुप्त और गुप्तोत्तर कालीन कुछ जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां प्राप्त हुई है, जिनमें ऋषभनाथ, संभवनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर की प्रतिमाएं उल्लेखनीय हैं । ये मूर्तियां इस पहाड़ी के प्राचीन जैन संबंधों को व्यक्त करती हैं। विपुल पर्वत का उल्लेख करने वाला प्राचीनतम जैन अभिलेख कुषाण काल का प्राप्त हुआ है। इसी पर्वत पर 'गुणशील' चैत्य स्थित था, जहाँ महावीर ने अपने शिष्यों को उपदेश दिया था।16 राजगृह में जैन धर्म और कला की परम्परा गुप्त और गुप्तोत्तर काल तक बनी रहीं। यहाँ के वैभार पर्वत पर एक ध्वस्त मंदिर के अवशेष प्राप्त हुए हैं जिसमें अनेक जैन प्रतिमाएं भी उपलब्ध हैं । इस मंदिर का मुख्य कक्ष पूर्वाभिमुख है। मंदिर की दीवारों पर अनेक रथिकाएं बनी हैं। इन रथिकाओं में मूर्तियां स्थापित थी, जिनमें से अब अधिकांश मूर्तियां लुप्त हो गई हैं, परंतु कुछ मूर्तियां अभी शेष हैं। एक रथिका में पद्मासन में बैठी हुई ध्यान मुद्रा में एक प्रतिमा है जिसकी चौकी के दोनों छोरों पर सिंह प्रदर्शित हैं तथा केन्द्र में धर्मचक्र बना है। इस मूर्ति के बायीं ओर की रथिका में ऋषभनाथ को बैठे हुए दिखलाया गया है। इसकी पाद पीठ पर दो वृष और एक चक्र प्रदर्शित है। साथ में लगभग आठवीं शताब्दी ई. का एक अभिलेख भी है जिसमें आचार्य बसंतनंदी का उल्लेख किया गया है। एक दूसरी भग्न प्रतिमा में केवल पद्मासन में पैर और वृष का चित्रण दिखाई पड़ता है। साथ ही 'देवधर्मों' लेख अंकित है। कुछ अन्य रथिकाओं में पार्श्वनाथ, महावीर और संभवनाथ की प्रतिमाएं दर्शनीय हैं। एक प्रतिमा काले पत्थर से निर्मित है, जिस पर गुप्त लिपि में 'महाराजाधिराज श्री चन्द्र' लिखा हुआ है। आर.पी. चंदा ने इसे चन्द्रगुप्त द्वितीय माना है। यह अभिलेख युक्त प्रतिमा पद्मासन में स्थित है। उसके आसन के नीचे मध्य में चक्र बना है। चक्र के बीच में एक पुरुष खड़ा है, जिसका बायाँ हाथ अभयमुद्रा में है और दायाँ खंडित है। चक्र के दोनों ओर शंख हैं तथा दोनों पाश्र्यों में एक जिन प्रतिमा पद्मासन में बैठी हैं । आसन के दोनों, छोरों पर सिंहों का अंकन दर्शनीय है। मुख्य प्रतिमा का सिर खंडित है। नीचे शेष के अंकन के आधार पर इसकी पहचान नेमिनाथ से की गई है । आर.पी. चंदा ने चक्र के भीतर खड़ी आकृति को राजकुमार अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) होने का अनुमान किया है किंतु उमाकांत शाह के अनुसार यह चक्र पुरुष है। आर.पी. चंदा ने इस अभिलिखित प्रतिमा के आधार पर उपरोक्त जैन प्रतिमाओं को गुप्तकालीन होने का अनुमान किया है। चक्रपुरुष के कुन्तलकेश तथा उसके द्वारा धारण की गई एकावली आदि विशेषताएं नेमिनाथ प्रतिमा के निःसंदेह गुप्तकालीन होने का संकेत देती हैं। संभव है कुछ जैन प्रतिमाएं भी गुप्तकालीन हो। वैभवगिरि के दक्षिण अंचल की सोन भंडार गुफा के प्रवेश द्वार के अंदर जाने पर लेख मिलता है जो इस प्रकार है निर्वाणलाभाय तपस्वियोग्ये शुभे ग्रहे अर्हतप्रतिमा प्रतिष्ठे। आचार्यरत्नं मुनिवरदेवः विमुक्त ये अकारय दूर्ध्व तेजः॥ अर्थात् अत्यन्त तेजस्वी आचार्य प्रवर वैरदैव ने निर्वाण प्राप्ति के लिए तपस्वियों के योग्य दो गुफाओं का निर्माण कराया।18 उपरोक्त शिलालेख से स्पष्ट होता है कि जैनियों के आचार्य भैरवदेव या वैरदैव ने साधना करने के लिए इन दो गुफाओं का निर्माण करवाया था और इनमें जैन अर्हतों की मूर्तियां स्थापित करायी थी। इस शिलालेख की लिपि तीसरी-चौथी शताब्दी ई. की प्रतीत होती है। इस बड़ी गुफा में काले 34 अर्हत् वचन, 24 (1), 2012
SR No.526592
Book TitleArhat Vachan 2012 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2012
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size3 MB
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