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की सत्ता में कोई बाधक प्रमाण नहीं है, इसलिए उसकी निर्बाध सत्ता सिद्ध है । अकलंक ने लिखा
'अस्ति सर्वज्ञः सुनिश्चितासंभवबाधकप्रमाणत्वात्, सुखादिवत्।' इसी सरणी पर बाद के जैन दार्शनिकों ने सर्वज्ञसिद्धि का विस्तृत विवेचन किया है।
इस प्रकार जैन दार्शनिकों ने प्रमाणशास्त्र की कसौटी पर भी आत्मतत्त्व की चरम प्रतिष्ठा की। भारतीय प्रमाणशास्त्र को जैन दार्शनिकों का यह महत्त्वपूर्ण योगदान है। प्रमाण शास्त्र के इतिहास में इसका समुचित समावेश किया जाना चाहिए ।
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संदर्भ ग्रंथ - 1. न्यायमाष्य, वात्स्यायन, चौखम्बा सीरीज, काशी, 1.1.3
न्यायवार्तिक, उद्योतकर, चौखम्बा सीरीज, काशी, 1.1.3 न्यायसूत्र भामती टीका, उद्योतकर, चौरवम्बा सीरिज, काशी, 1.1.4
न्यायभाष्य पृ. 255 न्यायमञ्जरी, जयन्तभट्ट, विजयानगरम सीरिज, काशी. प. 73.479 5. न्यायवार्तिक, वही, पाद टिप्पण 2, पृ. 31 6.A न्यायमञ्जरी, वही, पाद टिप्पण 4, पृ. 72 6.B वही पृ. 74
न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमाचन्द्र, सम्पादक पं. महेन्द्रकुमार जैन, माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, प्रथम संस्करण, सन् 1947, पृ. 25-32 प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रभाचन्द्र, सम्पादक पं. महेन्द्र कुमार जैन, निर्णयसागर मुद्राणालय, बम्बई, द्वितीय संस्करण, सन् 1941, पृ. 14-18 तत्त्वार्थवार्तिक, भट्ट अकलङ्कदेव, सम्पादक पं. महेन्द्रकुमार जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम
संस्करण, सन् 1953, पृ. 48 10. न्यायकुमुदचन्द्र, वही, पाद टिप्पण 7, पृ. 75-82 11. प्रमेयकमलमार्तण्ड, वही, पाद टिप्पण 8, पृ. 220-229 12. सर्वार्थसिद्धि, पूज्यपाद, सम्पादक पं. फूलचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, सन् 1944, पृ.
57 13. तत्वार्थवार्तिक, वही, पाद टिप्पण 9, पृ. 36 14. न्यायकुमुदचन्द्र, वही, पाद टिप्पण 7, पृ. 32 15. न्यायमञ्जरी, वही, पाद टिप्पण 4, पृ. 12 16. न्यायकुमुदचन्द, वही, पाद टिप्पण 7, पृ. 35-39
प्रमेयकमलमार्तण्ड, वही, पाद टिप्पण 8, पृ. 7-13 18. न्यायवार्तिक तात्पर्य टीका, वाचस्पति मिश्र, चौरवम्बा सीरिज, वाराणसी, पृ. 155 19. सांख्यकारिका, ईश्वरकृष्ण, चौरवम्बा सीरिज, वाराणसी, कारिका 5 20. सांख्यसूत्र, चौरवम्बा सीरिज, काशी, 1.89 21,22. प्रमाणमीमांसा, हेमचन्द्र सूरि, सम्पादक पं. सुखलाल संघवी, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद,
प्रथम संस्करण, सन् 1939 पृ. 24 23. सांख्यकारिका, वही, पद टिप्पण 19
अर्हत् वचन, 24(1), 2012