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________________ उसका यह ज्ञान गुण पूर्ण रूप से प्रकट नहीं होता। जैसे-जैसे कर्म का आवरण हटता जाता है, वैसे वैसे ज्ञान का विकसित रूप प्रकट होता जाता है। इस प्रकार जब आवरण सर्वथा हट जाता है तो निरावरण केवलज्ञान प्रकट होता है। इसे क्षायिक ज्ञान भी कहते हैं। केवलज्ञानी त्रिकालवर्ती सभी रूपी-अरूपी द्रव्यों की समस्त पर्यायों को एक साथ जानता है । कुन्दकुन्द ने लिखा है जं तकालियमिदरं जाणदि जुगवं समंतदो सव्वं । अत्थं विचित्तविसमं तं णाणं खाइयं भणियं ॥ जो ण विजाणदि जुगवं अत्थे तेकालिके तिहुवणत्थे । णातुं तस्स ण सकं समजयं दव्वमेकं वा॥ दव्वं अणंतपञ्जयमेक्कमणंताणि दट्वजादाणि। ण विजाणदि जदि जुगवं कध सो सव्वाणि जाणादि | सर्वज्ञसिद्धि का दार्शनिक आधार - सर्वज्ञ की उपर्युक्त सैद्धांतिक मान्यता को बाद के दार्शनिकों ने तार्किक आधार देकर सिद्ध किया है। मुख्य आधार अनुमान प्रमाण है । समन्तभद्र ने लिखा है "सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्नयादिरितिसर्वज्ञसंस्थितिः।। 85 सूक्ष्म पदार्थ परमाणु आदि, अन्तरित राम, रावण आदि, दूरार्थ सुमेरु पर्वतादि, अग्नि आदि की तरह अनुमेय होने से किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं । इस हेतु से सर्वज्ञ की सिद्धि होती है। भट्ट अकलंक ने सर्वज्ञता का समर्थन करते हुए लिखा है कि आत्मा में समस्त पदार्थों के जानने की पूर्ण सामर्थ्य है। संसारी अवस्था में उसके ज्ञान का ज्ञानावरण से आवृत होने के कारण पूर्ण प्रकाश नहीं हो पाता, पर जब चैतन्य के प्रतिबन्धक कर्मों का पूर्ण क्षय हो जाता है तब उस अप्राप्यकारी ज्ञान को समस्त अर्थों के जानने में क्या बाधा है | यदि अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान न हो सके तो सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिर्ग्रहों की ग्रहण आदि भविष्यकालीन दशाओं का उपदेश कैसे हो सकेगा। ज्योतिर्ज्ञानोपदेश अविसंवादी और यथार्थ देखा जाता है। अतः यह मानना अनिवार्य है कि उसका यथार्थ उपदेश अतीन्द्रियार्थ दर्शन के बिना नहीं हो सकता। जैसे सत्य स्वप्न दर्शन इन्द्रिय आदि की सहायता के बिना ही भावी राज्यलाभ आदि का यथार्थ स्पष्ट ज्ञान कराता है तथा विशद है, उसी तरह सर्वज्ञ का ज्ञान भी भावी पदार्थों में संवादक और स्पष्ट होता है। जैसे ईक्षणिकादि विद्या अतीन्द्रिय पदार्थों का स्पष्ट भान करा देती है, उसी तरह अतीन्द्रिय ज्ञान भी स्पष्ट प्रतिभासक होता है (सिद्धिवि. न्यायवि. आदि)। हेमचन्द्र ने लिखा है - 'प्रज्ञातिशयविश्रान्त्यादिसिद्धेस्तत्सिद्धिः। 87 इस प्रकार अनुमान प्रमाण से सर्वज्ञता का प्रतिपादन किया गया है। सर्वज्ञता की सिद्धि में बाधक प्रमाण का अभाव - अकलंक ने सर्वज्ञता की सिद्धि में एक ओर यह हेतु दिया है कि सर्वज्ञता की सिद्धि में कोई भी बाधक प्रमाण नहीं है । बाधक का अभाव सिद्धि का बलवान साधक है। जैसे 'मैं सूखी हूँ' यहां सुख का साधक प्रमाण यही हो सकता है कि मेरे सुखी होने में कोई बाधक प्रमाण नहीं है । चूंकि सर्वज्ञ अर्हत् वचन, 24 (1), 2012
SR No.526592
Book TitleArhat Vachan 2012 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2012
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size3 MB
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