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जैन दार्शनिकों ने दिडनाग तथा धर्मकीर्ति दोनों के लक्षणों की समीक्षा की है। विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में प्रभाचन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र तथा प्रमेयकमलमार्तण्ड 7 में, एवं हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमांसा में निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का विस्तार से खण्डन किया है।
निर्विकल्पक ज्ञान अनिश्चयात्मक होने से अप्रामण
निर्विकल्पक ज्ञान अनिश्चयात्मक होता है । अनिश्चयात्मक ज्ञान को प्रमाण नहीं माना जा सकता। क्योंकि प्रमाण वहीं कहलाता है जो निश्चयात्मक हो ।
लोक व्यवहार में साधक न होने से अप्रमाण
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निर्विकल्पक ज्ञान अनिश्चयात्मक होने से व्यवहार में अनुपयोगी है जिस प्रकार मार्ग में चलते हुए तृणस्पर्श आदि का अनध्यवसाय रूप ज्ञान अनिश्चयात्मक होने से लोक व्यवहार में उपयोगी नहीं है, उसी प्रकार निर्विकल्पक ज्ञान भी अनुपयोगी है। अतएव वह प्रमाण नहीं हो सकता ।
जैन सम्मत प्रत्यक्ष प्रमाण
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दो परम्पराएं -
जैन परमपरा में प्रत्यक्ष के लक्षण की दो परम्पराएं उपलब्ध होती हैं। पहली परम्परा मुख्य रूप से आगमिक मान्यताओं के आधार पर चली है। दूसरी परम्परा में आगमिक मान्यता तथा न्यायशास्त्र की मान्यता के समायोजन का प्रयत्न किया गया है। इस समग्र चर्चा का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है
जैन आगमिक परम्परा में प्रत्यक्ष लक्षण और उसके भेद -
जैन परम्परा में प्रमाण की चर्चा ज्ञान चर्चा से प्रारम्भ होती है। आगमिक सिद्धांतों को संस्कृत सूत्र रूप में प्रस्तुत करने वाले आचार्य उमास्वामी ने ज्ञान के पांच भेद बताकर प्रथम दो को परोक्ष तथा अन्य तीन को प्रत्यक्ष कहा है
'मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् ।
आद्ये परोक्षम् ।
प्रत्यक्षमन्यत् । 99
अवधिज्ञान आदि तीनों ज्ञानों की परिभाषाएं इस प्रकार हैं
अवधिज्ञान
भाव की मर्यादा लिए हुए
जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल, रूपी पदार्थों को जानता है वह अवधिज्ञान है। इसके मूल में दो भेद हैं 1. भवप्रत्यय तथा 2. क्षयोपशमनिमित्तक । क्षयोपशमनिमित्तक के वर्धमान हीयमान आदि छह भेद हैं।
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मनः पर्ययज्ञान
जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को जान लेता है, वह मनः पर्ययज्ञान है । अवधिज्ञान की अपेक्षा यह ज्ञान अधिक विशुद्ध है, किन्तु यह केवल मनुष्यों के ही हो सकता है, जबकि अवधिज्ञान देव, नारकी आदि को भी हो सकता है। अवधिज्ञान मिथ्या भी होता, किन्तु मनः पर्ययज्ञान मिथ्या नहीं होता।
केवलज्ञान
जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना त्रिकालवर्ती रूपी अरूपी सभी पदार्थों की सभी पर्यायों को युगपत जाने, वह केवलज्ञान है।
अर्हत् वचन, 24 (1), 2012
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