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________________ 5. प्रमाणों से सिद्ध न होने पर भी ज्ञातृव्यापार का अस्तित्व मानना उपयुक्त नहीं है। बौद्ध सम्मत प्रत्यक्ष-लक्षण प्रत्यक्ष-लक्षण की दो धाराएं बौद्ध न्यायशास्त्र में प्रत्यक्ष-लक्षण की दो परम्पराएं देखी जाती हैं- पहली अभ्रान्त पद रहित और दूसरी अभ्रान्त पद सहित । पहली परम्परा के पुरस्कर्ता दिड्नाग हैं तथा दूसरी के धर्मकीर्ति। प्रमाणसमुच्चय और न्यायप्रवेश में पहली परम्परा के अनुसार लक्षण और व्याख्या है। न्यायबिन्दु54 और उसकी धर्मोत्तरीय आदि वृत्ति में दूसरी परम्परा के अनुसार लक्षण एवं व्याख्यान है। शान्तरक्षित ने तत्वसंग्रह में दूसरी परम्परा का ही समर्थन किया है। धर्मकीर्ति का लक्षण इस प्रकार है - 'प्रत्यक्षम्' कल्पनापोढमभ्रान्तं ।। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष अभ्रान्त पद के ग्रहण या अग्रहण करने वाली दोनों परम्पराओं में प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक माना गया है। बौद्धों का कहना है कि प्रत्यक्ष में शब्द संसृष्ट अर्थ का ग्रहण संभव नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण है, और वह क्षणिक है। इसलिए प्रत्यक्ष ज्ञान निर्विकल्पक ही होता है। क्षणभंगवाद - बौद्धों की इस मान्यता की पृष्ठभूमि में उनका दार्शनिक सिद्धांत क्षणभंगवाद है । यत् सत् तत् क्षणिकम् जो सत् है, वह क्षणिक है- इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्यक्ष जिस स्वलक्षण को ग्रहण करता है, उसमें कल्पना उत्पन्न हो, उसके पूर्व ही वह नष्ट हो जाता है। इसलिए वह सविकल्पक नहीं हो सकता। इन्द्रियज्ञान में तदाकारता का अभाव बौद्धों का कहना है कि अर्थ में शब्दों का रहना सम्भव नहीं है और न अर्थ और शब्द का तादात्म्य संबंध ही है। इसलिए अर्थ से उत्पन्न होने वाले ज्ञान में ज्ञान को उत्पन्न न करने वाले शब्द के आकार का संसर्ग नहीं रह सकता। क्योंकि जो जिसका जनक नहीं होता वह उसके आकार को धारण नहीं कर सकता । जैसे रस से उत्पन्न होने वाला रसज्ञान अपने जनक रूप आदि के आकार को धारण नहीं करता । इन्द्रियज्ञान केवल नील आदि अर्थ से उत्पन्न होता है, शब्द से उत्पन्न नहीं होता। इसलिए वह शब्द के आकार को धारण नहीं कर सकता। इस प्रकार शब्द के आकार को धारण न करने के कारण वह शब्दग्राही नहीं हो सकता। जो ज्ञान जिसके आकार नहीं होता वह उसका ग्राहक नहीं हो सकता। अतएव निर्विकल्प ज्ञान ही प्रमाण है। निर्विकल्पक ज्ञान और लोक-व्यवहार - निर्विकल्पक ज्ञान में सविकल्पक ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति है । अतः वह उसके द्वारा समस्त व्यवहारों में कारण होता है। निर्विकल्प प्रत्यक्ष के विषय को लेकर ही बाद के विकल्प उत्पन्न होते हैं । इसलिए निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। बौद्धों के प्रत्यक्ष लक्षण की समीक्षा - बौद्धों की इस मान्यता का बौद्धोत्तर तर्क ग्रंथों में विस्तार से खण्डन किया गया है। भामह ने काव्यालंकार और उद्योतकर ने न्यायवार्तिक में दिड्नाग के प्रत्यक्ष लक्षण का तथा वाचस्पति मिश्र की तात्पर्यटीका, जयन्त भट्ट की न्यायमंजरी2, श्रीधर की न्यायकन्दली और शालिकनाथ की प्रकरण-परीक्षा 4 में धर्मकीर्ति के प्रत्यक्ष लक्षण की समीक्षा की गयी है। 14 अर्हत् वचन, 24 (1), 2012
SR No.526592
Book TitleArhat Vachan 2012 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2012
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size3 MB
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