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गया है। इसमें उसके बाद सभी आचार्य पूर्वज्ञान और अंगज्ञान के एकदेशधर ही हुए। आचार्य गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबली ऐसे ही आचार्य थे । श्वे. परम्परा में यह पूर्वज्ञान 1000 वर्ष तक बना रहा जबकि दिगम्बर परम्परा में यह पूर्वज्ञान वी.नि.सं. 345 में ही विच्छिन्न हो गया था। 655 वर्ष का यह अन्तर निश्चित ही विचारणीय है यह इन्द्रनन्दि श्रुतावतार की परम्परा है। नन्दिसंघ प्राकृत पट्टावली इस परम्परा को 118 वर्ष पीछे ढकेल देती है। जो भी हो, पूर्वज्ञान के बाद आचारांगादि के विच्छेद का भी उल्लेख दिगम्बर परम्परा में मिलता है पर अंगबाह्य आगमों के उच्छेद के विषय में कोई उल्लेख देखने में नहीं आया। इसका कारण शायद यह रहा हो कि अंग बाह्य ग्रंथों का परिगणन द्वादशांगों से बाहर है।
लगता है, एक लम्बे समय तक श्रुत परम्परा दोनों सम्प्रदायों में समान रूप से प्रचलित रही है। वैचारिक और सैद्धांतिक मतभेद जैसे-जैसे उग्रतर होते गये, दूरियां बढ़ती गईं। उपलब्ध आगमों में अवांछित सामग्री जुड़ती-घटती रही। उसका मूल स्वरूप छिन्न-भिन्न होने लगा।
आज आवश्यकता यह है कि हम वस्तुस्थिति को निष्पक्ष रूप से समझने का प्रयत्न करें।
1. तीर्थंकर महावीर की आद्य परम्परा तीर्थंकर ऋषभदेव की रही है जिनका उल्लेख ऋग्वेद में एक अचेलक महापुरुष के रूप में पचासों बार हुआ है।
2. सिन्धु-हड़प्पा के उत्खनन में सबसे निचले स्तर से प्राप्त टोरसो में एक भव्य दिगम्बर प्रतिमा का रूपांकन हुआ है।
3. लोहानीपुर में भी लगभग इसी रूप में दिगम्बर मुद्रा में जैन मूर्ति उपलब्ध हुई है जो लगभग द्वितीय शताब्दी ई. पू. की है। यह मूर्ति वर्तमान में पटना संग्रहालय में सुरक्षित है।
4. खारवेल के हाथीगुम्फा शिलालेख में जिस कलिंग प्रतिमा का उल्लेख हुआ है और जिसे नन्दराज कलिंग उठा ले गया वह भी अचेलक रही है। यह मूर्ति लगभग चतुर्थ शदी ई.पू. की होनी चाहिए।
5. मथुरा कंकाली टीले से प्राप्त प्राचीनतम जैन मूर्तियां भी लगभग प्रथम शताब्दी की अचेलक अवस्था में मिली है ।
इससे इस तथ्य को हमें स्वीकार कर लेना चाहिए कि दिगम्बर परम्परा की अचेलक परम्परा सर्वमान्य और प्राचीनतर रही है। श्वे. परम्परा द्वारा मान्य आगमिक ग्रंथों में भी इसे स्वीकारा गया है।
श्वेताम्बर परम्परा में कोई भी मूर्ति पांचवीं शताब्दी के पूर्व की नहीं मिलती।
इस तथ्य की पृष्ठभूमि में अब यह अत्यावश्यक है कि हम उपलब्ध आगमिक ग्रंथों पर इतिहास परक चिन्तन प्रस्तुत करें और तीर्थंकर महावीर की मूल वाणी तक पहुंचने का प्रयत्न करें। इससे सामाजिक समरसता भी बढ़ेगी और विलुप्त या अज्ञात इतिहास की परतों का उद्घाटन भी हो सकेगा।
इस उद्देश्य की पृष्ठभूमि में हर आगम का समय निर्धारण नितान्त आवश्यक है। प्राचीन तीर्थ जीर्णोद्वार के आगामी अंकों में एतद्विषयक आलेख माला प्रकाशित करने का विचार है।
यह शोध योजना श्रमसाध्य और समयसाध्य है, अर्थसाध्य भी । यदि हम उपलब्ध आगमों में से मूल आगमों का निर्धारण कर सकें और शौरसेनी प्राकृत जैन आगमों को समाज के समक्ष प्रस्तुत कर सके तो इसे दिगम्बर जैन समाज के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जायेगी। विलुप्त आगमों का मिल जाना एक ऐतिहासिक यथार्थवत्ता होगी।
हमारी इस शोध योजना से यदि कोई संस्थान जुड़ना चाहे तो उसका हम हार्दिक स्वागत करेंगे। इसमें कोई साम्प्रदायिक भेदभाव नहीं रहेगा। मात्र महावीर की निष्कलुष और वीतरागी आध्यात्मिक साधना से ओतप्रोत वाणी सरिता का स्वच्छ प्रवाह खोजना है जिसमें आप्लावित होकर हम अपनी पुनीत विरासत को पुनः प्राप्त कर सकें और उसे सुरक्षित रखने का प्रावधान कर आनन्दित हो सकें।
प्राचीन तीर्थ जीर्णोद्धार पत्रिका जुलाई 2011 से साभार सम्पादित रूप में
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* कस्तूरबा वाचनालय के पास, सदर, नागपुर (महाराष्ट्र)
09421363926
अर्हत् वचन, 23 (4), 2011