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________________ अर्हत् वचन कुन्दकुन्दज्ञानपीठ, इन्दौर टिप्पणी-1 श्रुतावतार का यथार्थ - भागचन्द्र जैन 'भास्कर' * दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार श्रुतपंचमी के दिन आचार्य पुष्पदन्त-भूतबलि ने अपना षट्खण्डागम (छक्खण्डागम) समाप्त किया था। इस अभूतपूर्व ग्रंथ को लिखकर समाज को समर्पित किया था। इन्द्रनन्दि ने इसे 'श्रुतावतार' की संज्ञा से अभिहित किया है। प्रश्न उठता है कि श्रुतावतार की पृष्ठभूमि क्या है ? इन्द्रनन्दि को इसे श्रुतावतार क्यों कहना पड़ा? ऐसे प्रश्नों के उत्तरों में दिगम्बर परम्परा की विवशता, प्रतिबद्धता, प्रातिभ दृष्टि, गंभीर विद्वत्ता और सकारात्मक सोच जैसे तत्त्व प्रतिबिम्बित होते हैं। आचार्य गुणधर, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि पूर्वज्ञान और अंगज्ञान के एकदेशधर थे, श्रुत विच्छिन्नता कगार पर थी, मौखिक परम्परा अस्तंगत होती जा रही थी। वी.नि.सं. 345 तक श्रुत लगभग विच्छिन्न हो गया था। श्वे. परम्परा में यह स्थिति वी.नि.सं. 584 से 1000 वर्ष तक चलती रही। उसमें देवर्धिगणि क्षमाश्रमण अंतिम एक पूर्वधारी थे। यह 416 वर्षों का अन्तर सारी कथा अपने आप में समेटे हुए है। वैदिक और बौद्ध परम्पराओं में भी यह मौखिक परम्परा विद्यमान रही है ई.सन् के आसपास तक। दिगम्बर परम्परा भी इसी समय के साथ चलती दिख रही है। परंतु श्वे. परम्परा यह समय लगभग 60 वर्ष आगे खींच रही है। इस समय तक साम्प्रदायिक मतभेद उग्र हो चुके थे। लेखन प्रारम्भ हो चुका था। आगमों में साम्प्रदायिकता भरे बीजों का वपन हो चुका था। आचार-विचार में भयंकर शैथिल्य आ चुका था। श्रुतविच्छिन्नता ने अपना खेल खेलना प्रारंभ कर दिया था। ऐसी स्थिति में दिगम्बर परम्परा के समक्ष एक ही विकल्प शेष था-श्वे. परम्परा द्वारा मान्य श्रुत को विलुप्त मानकर उसे अस्वीकार कर देना। इस समय तक उपलब्ध श्वेताम्बर आगमों में स्पष्ट रूप से एक ओर तो अचेलकता के प्रति सम्मान और श्रद्धा व्यक्त की गई और दूसरी ओर कालान्तर में श्वे. टीकाकारों और चूर्णिकारों ने इस शब्द की व्याख्या करते हुए अल्पचेलकता की ओर उसे मोड़ा, सान्तरुतर जैसे नये शब्दों को गढ़ा, आहार-पान की ओर तृष्णा बढ़ी, त्याग-तपस्या का रूप-स्वरूप बदला, भाषात्मक विकास ने अपनी स्वाभाविकता पूर्वक नये सोपानों पर कदम बढ़ाये, आगमों का मूल रूप विकृत होने लगा, समय-समय पर आगमों का कलेवर घटने-बढ़ने लगा। वर्तमान उपलब्ध आगमों में ऐसी विकृतियां आ चुकी थी जिन्हें यथार्थ जैनत्व के साथ किसी भी स्थिति में संबद्ध नहीं किया जा सकता। ऐसी विकृतियां वस्त्र, आहार, विहार आदि से अधिक जुड़ी हुई हैं। मांस भक्षण की ओर झुकाव जैसे तत्त्व असहनीय हो चुके थे। आचार्य अकलंक ने आगमों से जो उद्धरण उद्धृत किये, आज वे उनमें उपलब्ध नहीं हैं। ऐसी स्थिति में मूल आगमों के रूप-स्वरूप पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करना न तो अवांछनीय था और न अव्यावहारिक ही। दृष्टिवाद पर कसायपाहुड़ और षट्खण्डागम आधारित रहे हैं। उसके विस्तृत उल्लेख समवायांग, नन्दिसूत्र, महानिसीथ, अनुयोगद्वार और आवश्यक नियुक्ति में मिले हैं। पूर्वो की जानकारी ज्ञातृधर्मकथा, अन्तकृद्दशा और प्रश्नव्याकरण में विशेष मिलती है। नन्दिसूत्र में तो दृष्टिवाद का परिचय विस्तार के साथ दिया गया है। दिगम्बर परम्परा के तत्त्वार्थवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, धवला, जयधवला आदि ग्रंथों में भी दृष्टिवाद की विस्तृत सूचना मिलती है। ऐसी स्थिति में उसका लोप कैसे माना जा सकता है ? यह निश्चित ही एक प्रतिक्रियात्मक कदम रहा होगा। दि. परम्परा में पाँच आचार्य, ग्यारह अंगधारियों का समय 220 वर्ष तथा चार आचारांगधारियों का समय 118 वर्ष माना जाता है। इस तरह कुल 683 वर्ष का समय गौतम गणधर से लोहाचार्य पर्यन्त माना अर्हत् वचन,23(4), 2011 75
SR No.526591
Book TitleArhat Vachan 2011 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2011
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size8 MB
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