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________________ वर्ण, एक गन्ध, एक रस तथा शीत-स्निग्ध, शीत-रुक्ष, उष्ण-स्निग्ध व उष्ण-रूक्ष इन चार युगलों में से कोई एक युगल रूप दो स्पर्श कम से कम अवश्य होने ही चाहिये। इसी कारण शुद्ध व सूक्ष्मातिसूक्ष्म अवस्था को द्विस्पर्शी संज्ञा दी जाती है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने इसी कारण निर्देश दिया - "एयरसवण्णगंध दो फासं"10 अर्थात् - किसी पुद्गल परमाणु में कम से कम 5 गुण अवश्य होने चाहिए। मूर्तिक व अमूर्तिक - ये किनके विषय बनाते हैं, की व्याख्या के लिये आ. कुन्दकुन्द स्वामी ने दो गाथाएँ दी हैं - "आगास काल जीवा धम्माधम्मा य मूत्ति परिहीणा। मुत्तं पुग्गल दव्वं जीवो खलु चेदणो तेसु ।।97।। जेखलु इन्दियगेज्झा विसया, जीवेहिं होंति ते मुत्ता। सेसं हवदि अमुत्तं, चित्तं उभयं समादियदि ।।9911 मूर्तिक-अमूर्तिक का लक्षण - जो विषय-पदार्थ जीव से इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होते हैं, वे मूर्तिक तथा शेष अमूर्तिक हैं। विशेषता यह भी कि संख्यात, असंख्यात, अनन्त अणुओं के सूक्ष्म परिगमन से कितनी ही वस्तुएँ तथा पुद्गल वर्गणाएँ इतनी सूक्ष्म हैं कि इन्द्रियगोचर नहीं, परन्तु किसी समय स्थूल परिणमन से इन्द्रियों का विषय बनने की क्षमता रखती है ।अत: वर्तमान में इन्द्रिय गोचर न होते हुए भी मूर्तिक ही हैं। अपनी अतिसूक्ष्म अवस्था में परमाणु इन्द्रियगोचर नही, किन्तु स्थूल धारण करने पर इन्द्रियगोचर हो जाते हैं, अत: परमाणु भी मूर्तिक है। इसी कारण आचार्य उमास्वामी ने 'रूपिण: पुद्गला:' 12 देकर स्थूल-सूक्ष्म किसी भी अवस्था में पुद्गल को रूपी अर्थात् मूर्तिक ही कहा है। । इसमें से एक अत्यंत रोचक तथ्य और सामने आता है कि जब भी पुद्गल के लक्षण-स्पर्श, रस, गंध, वर्ण गिने जाते हैं तथा उनके भेद बताये जाते हैं, तब वे केवल संख्या में '20' बताये जाते हैं जो प्रारम्भ की चार इन्द्रियों के ही हैं। पांचवीं कर्णेन्द्रिय के विषयों को नहीं गिना गया? क्या ये इन्द्रिय नहीं है ? यह अत्यन्त आश्चर्य है। आचार्य उमास्वामी नामकर्म की 42 ( व उत्तर भेद से 93) प्रकृतियों के लिये सूत्र देते हैं - "गति-जाति-शरीरांगोपांग-निर्माण-बन्धन-संघात-संस्थान-सहनन-स्पर्श-रसगन्ध-वर्णानुपूर्व्या गुरुपघात परद्यातातपोधोतोच्छवास-विहायोगतयः- प्रत्येक शरीर-त्रससुभग-सुस्वर-शुभ-सूक्ष्म-पर्याप्तिस्थिरादेय-यश:कीर्ति-सेतराणि तीर्थकरत्वं च ।।11।13 इस सूत्र में भी स्पर्शन - रसना, घ्राण व चक्षु इन्द्रियों के स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण आदि 8+5+2+5=20 ही लक्षण भेद किये हैं । श्रोत्रेन्दिय के विषयों का कोई उल्लेख नहीं किया। जबकि दूसरे अध्याय के सूत्र क्रमांक 20 में 'स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्ता ' कहकर पाँचवी श्रोत्रेन्द्रिय का विषय 'शब्द' उल्लेखित किया है। प्रश्न यह होता है कि नामकर्म की प्रकृतियों की गणना में श्रोत्रेन्द्रिय का विषय क्यों नहीं दिया गया। इसका समाधान इस प्रकार है कि स्पर्शन, रसना, घ्राण व चक्षु इन्द्रियों के 20 विषय नामकर्म प्रकृति की 42 या 93 उत्तर प्रकृतियों से स्थायी रूप से पाये जाते हैं अर्थात् ये गुण नामकर्म प्रकृतियों के द्रव्य में गुण या स्वभाव रूप में अंकित हो जाते हैं, जबकि 'शब्द' पुद्गल का कोई स्वभाव या गुण नहीं बन पाता, जो 20 प्रकृतियों की भाँति कुछ स्थायी रूप से उसमें पाया जाय जो द्रव्य स्पर्श-रस अर्हत् वचन, 23 (4), 2011 33
SR No.526591
Book TitleArhat Vachan 2011 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2011
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size8 MB
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