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लेखकों हेतु संदेश
अर्हत् वचन में जैन धर्म/दर्शन के वैज्ञानिक पक्ष तथा जैन इतिहास एवं पुरातत्व से सम्बन्धित मौलिक,शाधपूण एव सवदाणारा
धपूर्ण एवं सर्वेक्षणात्मक आलेखों को प्रकाशित किया जाता हैं। शोध की गुणात्मकता एवं मौलिकता के संरक्षण हेतु दो प्राध्यापकों अथवा पारम्परिक विषय विशेषज्ञों से परीक्षित करा लेने के उपरान्त ही आलेख अर्हत वचन में प्रकाशित किये जाते हैं। शोध आलेखों के अतिरिक्त संक्षिप्त टिप्पणियाँ, अकादमिक संगोष्ठी/सम्मेलनों की सूचनाएँ/आख्याएँ, आलेख एवं पुस्तक समीक्षाएँ भी प्रकाशित की जाती हैं। अर्हत वचन में प्रकाशित किये जाने वाले समस्त लेख इस अपेक्षा से प्रकाशित किये जाते हैं कि वे न तो पूर्व प्रकाशित हैं एवं न अन्यत्र प्रकाशनार्थ प्रेषित हैं। यदि पूर्व प्रेषित कोई लेख अन्यत्र प्रकाशित हो चुका है तो माननीय लेखकों को इसकी सूचना हमें तत्काल अवश्य भेजनी चाहिये। लेखकगण यदि पुस्तक या लेख से सन्दर्भ ग्रहण करते हैं तो उन्हें सम्बद्ध लेख/पुस्तक का पूर्ण सन्दर्भ देना चाहिये । लेख का शीर्षक, प्रकाशित करने वाली पत्रिका का नाम प्रकाशन स्थल, वर्ष, अंक, पृष्ठ संख्या अथवा पुस्तक का नाम, लेखक, प्रकाशक, संस्करण, प्रकाशन वर्ष, आवश्यकतानुसार अध्याय, गाथा, पृष्ठ संख्या आदि। समान सन्दर्भ की पुनरावृत्ति होने पर बाद में संक्षिप्त नाम प्रयोग में लाया जा सकता हैं । उदाहरणार्थ :जैन, अनुपम, बीसवीं शताब्दी में जैन गणित के अध्ययन की प्रगति, अर्हत् वचन (इन्दौर) 14 (2-3) अप्रैल - सितम्बर 2002, 51-68 विद्यानन्द मुनि (आचार्य), तत्वज्ञान और मुनि, अर्हत् वचन (इन्दौर), 19 (1-2), जनवरी - जून 07, 3-6 लेखकगण अपने आलेख की दो प्रतियाँ टंकित एक पृष्ठीय सारांश सहित भेजने का कष्ट करें। प्रथम पृष्ठ पर लेख का शीर्षक, लेखक/लेखकों के नाम एवं पत्राचार के पूर्ण पते होने चाहिये। अन्दर के पष्ठों पर लेखक/लेखकों के नाम न दें। कपया हिन्दी के आलेख एम एस वर्ड में कृतिदेव फोन्ट में टाइप करके सी.डी. में भेजेंगे तो प्रकाशन में सुविधा रहेगी। लेख के साथ लेख के मौलिक एवं अप्रकाशित होने का प्रमाण पत्र अवश्य संलग्न करें एवं अर्हत् वचन में प्रकाशन के निर्णय होने तक अन्यत्र प्रकाशनार्थ न भेजें।
-डॉ. अनुपम जैन
सम्पादक-अर्हत् वचन
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अर्हत् वचन, 19 (3), 2007
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