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________________ वट वृक्ष वटो: रक्तफलः श्रृंङ्गी न्यग्रोधः स्कन्धजो ध्रुवः । क्षीरी वैश्रवणो वासो बहुपादो वनस्पतिः ॥1॥ भाव प्रकाश निघण्टुः (वटादि वर्ग), पृ. - 513 वट, रक्तफल, श्रृङ्गी, न्यग्रोध, स्कन्धज, ध्रुव, क्षीरी, वैश्रवण, वास, बहुपाद, वनस्पति ये सब बरगद के संस्कृत नाम हैं। लेटिन में Ficus bengalensis, fam. moraceae कहते हैं। यह सब प्रांतों में उत्पन्न होता है। इसका वृक्ष बहुत विशाल होता है। वटः शीतो गरुग्रही कफपित्तव्रणापहः । वय विसर्पदाहध्नः कषायो योनिदोषहत ||2|| भा. प्र.नि., पृ. - 513 बरगद - कषायरसयुक्त, शीतल, गुरु, ग्राही, शरीर के वर्ण को उत्तम करने वाला एवं कफ, पित्त, व्रण, विसर्प, दाह और योनि सम्बंधी दोषों को दूर करता है । 2 - अजितनाथ माघे मासि सिते पक्षे रोहिण्यां नवमीदिने । सहेतुके व सप्तपर्णद्रुमसमीपगः ॥ 3811 उत्तरपुराण, पृ. - 4 भगवान अजितनाथ ने सहेतुक वन में सप्तपर्ण वृक्ष के समीप दीक्षा ली। दीक्षा लेते ही मनः पर्ययज्ञान से सम्पन्न हो गये । सप्तपर्णः (छतिवन - सतौना) सप्तपर्णो विशालत्वक् शारदो विषमच्छदः ॥74 || सप्तपर्णो व्रणश्लेश्म वातकुष्ठास्तजन्तु जिम् । दीपनः श्वासगुल्मघ्नः स्निग्श्रोष्णस्तु वरः सरः 1175 || भा. प्र.नि., पृ. 546 सप्तपर्ण, विशालत्वक्, शारद तथा विषमच्छद संस्कृत नाम हैं। Alstonia scholaris R, Br लेटिन में कहते हैं । छतिवन का वृक्ष प्रायः सभी आर्द्र प्रान्तों में पाया जाता है। इसका वृक्ष सुन्दर, विशाल, सीधा, सदैव हरा रहने वाला एवं क्षीरयुक्त होता है। इसकी छाल का उपयोग ज्वर, विषभ ज्वर, अतिसार प्रवाहिका, चर्मरोग एवं कृमि में किया जाता है । 3- • संभवनाथ सिद्धार्थ शिबिकामूढां देवैरारुह्य निर्गतः । सहेतुकवने राज्ञां सहस्रेणाप संयमम् ॥37॥ अथमौनव्रतेनायं छदमस्थोऽब्देषु शुद्धधीः । द्विसप्तसु गते दीक्षावन शालतरोरधः ||40|| उत्तरपुराण, पृ. 17 भगवान संभवनाथ सहेतुक (दीक्षा) वन में पहुंचकर शाल्मली वृक्ष के नीचे अनन्त चतुष्टय को प्राप्त हुये । शाल्मली, शाल्मलिः Jain Education International शाल्मलिस्तु भवेन्मोचा पिच्छिक पूरणीति च । रक्तपुष्पा स्थिरायुश्र्व कण्टाटया च तूलिनी ||54|| शाल्मली शीतला स्वाद्वी रसे पाके रसायनी । श्लेष्मला पित्तवातास्नहारिणी रक्तपित्तजित् ||55|| भा. प्र.नि., पृ. - 537 शाल्मलि, मोचा, पिच्छिका, पूरणी, रक्तपुष्प, स्थिरायु, कण्टकाटया तथा तूलिनी, सेमर के संस्कृत नाम हैं। लेटिन नाम Bobbax Malabaricum De अर्हत् वचन, 19 (3), 2007 For Private & Personal Use Only 11 www.jainelibrary.org
SR No.526575
Book TitleArhat Vachan 2007 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2007
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size7 MB
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