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________________ टिप्पणी-6 अर्हत् वचन (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर) भारतीय अध्यात्म का स्वर्ण कलश - कटवप्र स्नेिहरानी जैन* कर्नाटक प्रदेश के प्रसिद्ध श्रवणबेलगोल तीर्थक्षेत्र की प्रसिद्धि का कारण अधिकांश लोग चामुण्डराय द्वारा निर्मापित, पहाड़ को तराश कर बनवाई गई बाहुबलि भगवान की मूर्ति ही मानते हैं। कुछ इतिहास में रुचि रखने वाले व्यक्ति विंध्यगिरि के साथ - साथ चन्द्रगिरि पर निर्मापित चन्द्रगुप्त मौर्य के जिन मन्दिर को मानते हैं जिसकी संगमरमरी जाली में चन्द्रगुप्त मौर्य की जीवनी सचित्र उभरी है। कुछ तपस्वी साधक भद्रबाहु की गुफा और संपूर्ण चन्द्रगिरि को मानते हैं जहाँ आचार्य भद्रबाहु और उनके शिष्य चन्द्रगुप्त ने समाधिमरण हेतु सल्लेखना ली। इस वर्ष संक्रांति (2003) से पूर्व कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण नये तथ्य सामने आये हैं जिनसे चन्द्रगिरि द्वारा अब मानव इतिहास को नया मोड़ लेना होगा। आचार्य भद्रबाहु की गुफा के चंदोवे वाली चट्टान में सात मानवाष्म अपनी झलक दर्शा रहे हैं। इनके फोटो भी अत्यन्त स्पष्ट हैं। यहाँ तक कि आँख, नाक, मुँह भी उनमें झलकते हैं। उन्हें देखकर अनुमान होता है कि उस लावा - जन्य शिला पर मनुष्य शांति से सोता होगा। हजारों वर्षों से यही होता रहा होगा, क्योंकि वह चट्टान 'कटवप्र' चारों ओर से घने जंगलों से घिरी थी। जिस स्थिति में वे मानवाष्म हैं, उनमें से तीन के पैर उत्तर की ओर तथा चार के पैर पूर्व की ओर लगते हैं। वे लगभग 8V2' से भी लम्बे कद के रहे होंगे। कर्नाटक पर्यटन विभाग कटवप्र को पुण्यजीवियों का मकबरा कहता है। समाधिलीन उन व्यक्तियों की वे शवासन मुद्राएँ दर्शाती हैं कि कायोत्सर्ग लेकर लेटने के कारण धरती की गड़गड़ाहट अथवा पत्थरों के बिखरने, लुढ़कने ने भी उन्हें विचलित नहीं किया होगा। जिस चट्टान में वे बने हैं, वह पूरी पिघली, लावारूप उछलकर उन पर गिरी होगी और छनककर सनसनाहट से शांत हो गई होंगी। शरीरों से उठती पानी की भाप ने लावा को जहाँ जहाँ छनका कर ठंडा करा दिया वहीं वहीं वे मानवाष्म अपना रूप ले बैठे। इससे अधिक तो और कुछ समझ में नहीं आता। यह घटना निश्चित ही तब की होगी जब ज्वालामुखी ने अंतिम बार अपना लावा उगला। दक्षिणी पठार का लावा रिसना तो लाखों वर्षों पूर्व बंद होकर हरियाली में बदल गया है। चन्द्रगिरि की वन्दना करते हुए जो दूसरी महत्वपूर्व वस्तु दिखी वह थी चट्टानी फर्श पर बिखरी बिछी लकीरों में अनबूझी अज्ञान 'उकेर'। मंदिर नं. 4/5 की सीढ़ी से उतरते ही उस पर दृष्टि पढ़ गई। बैठकर उसे टटोला तो मैंने पाया कि उन लकीरों के आसपास कुछ परिचित अक्षर भी थे। वे हड़प्पा और मोहनजोदड़ो वाली सैंधव लिपि के जैसे ही थे। कुछ पंक्तियाँ पढ़ते ही सभी कुछ समझ में आ गया कि वह तो हड़प्पा के समकालीन सभ्यता जैसे इस बात के पुष्ट प्रमाण हैं कि चन्द्रगिरि (कटवप्र) पर भद्रबाहु पूर्व काल से ही श्रमणों द्वारा तपश्चरण और सल्लेखना की जाती रही है। भद्रबाहु की गुफा में इस बात के ज्वलंत ठोस प्रमाण हैं कि वहाँ मनुष्य तपश्चर्यारत रहते थे। वहाँ के 'मानवाष्म' और बाहरी चट्टान पर क्षरण से धूमिल "जिन आकृतियाँ' तो उस 'उकेर' से भी प्राचीन हैं। चन्द्रगिरि की चट्टान पर आकाश तले पैरों से कुचली जा रही वह रेखाएँ इतनी अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 89 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526559
Book TitleArhat Vachan 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size12 MB
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