SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गणेशजी का वाहन चूहा है। चूहा विश्लेषण का प्रतीक है, वस्तुओं को कुरेदता है। उसमें विश्लेषण करने की, गुप्त चीजों के उद्घाटन करने की क्षमता अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक रहती है। प्रज्ञा पुत्र, गणनायक भी ब्रह्माण्ड के सत्य की खोज करने चिर काल तक तपस्या करते गये, जब तक सत्य का साक्षात्कार नहीं हुआ तब तक अपनी एकाग्रता से (एकदन्त) उसके विश्लेषण में लगे रहे। अन्त में उपाध्याय पद पर आसीन होकर अपने निकटस्थ मुमुक्षुओं की जिज्ञासा का समाधान करते रहे। प्राचीन जैन तीर्थ स्थलों (देवगढ़) पर उपाध्याय परमेष्ठी जिस आसन पर बैठते हैं, ठीक उसी प्रकार गणेशजी का आसन है। ___ गणेशजी के दोनों पार्श्व भाग में उनकी उभय पत्नियाँ विराजमान रहती हैं। उनके नाम ऋद्धि और सिद्धि हैं। श्रमजीवी के पीछे संसार की समस्त विभूति लगी रहती हैं। ऋद्धि-सिद्धि स्वत: अनुगामी होती हैं। आवश्यकता है सच्चे हृदय से अपने कर्तव्यों के निर्वहन की। गणपति, सरस्वती बैठे रहते हैं, लक्ष्मी की तरह खड़े नहीं रहते। विद्या चिर प्रतीक्षा के बाद आती है, लेकिन आने के बाद शीघ्र जाती नहीं है। लक्ष्मी जितनी जल्दी आती है, उतनी ही जल्दी जाती है। क्योंकि वह किसी के पास बैठने नहीं आती। जबकि वाग्मी सरस्वती जन्मांतरों में भी साथ रहती है। यही कारण है कि भारत में ज्ञानियों की, विद्वत्ता की पूजा होती है, धनपतियों की पूजा नहीं होती। श्रेष्ठतम पुरुष मानव समाज के मुकुट होते हैं। तभी उन्हें समाज शिरोमणि, समाजरत्न, भारतभूषण, पद्मश्री जैसी विरूदावलियों से नवाजा जाता है। गणेश महाराज के सिर पर भी मुकुट बांधकर उनका नेतृत्व समाज स्वीकार करती है। उनकी अनुग्रह - निग्रह वृत्ति की कोई सानी नहीं है। उनके सिर पर रखा ताज किसी भूखण्ड या विजेता चतुरंगिणी सेना समूह का द्योतक नहीं अपितु अध्यात्म जगत में चतुर्विध संघ के गण नायकत्व का बोधक है। गणेशजी अपने आप में विविधताओं से मंडित हैं। उनकी असलियत तक पहँचने के लिये दिमाग को खुला रखना होगा। ... आयुर्वेद में पित्त प्रकृति वालों को बुद्धिमान, प्रामाणिक, परिश्रमी, कर्त्तव्यशील, विद्याप्रेमी बताया है। इस प्रकृति के लोगों में प्राय: कार्यक्षमता अधिक रहती है। ऐसे लोगों को और भी बुद्धिवर्द्धन करने, स्वादिष्ट मिष्ठान्न सेवन करने की आयुर्वेद विज्ञान सलाह देता है। जैन तीर्थकर और तथागत बुद्ध का भी प्रिय भोजन मिष्ठान्न ही था। आज के विद्यार्थियों को उनके आहार सेवन से उनकी अन्त:चेतना को परखा जा सकता है। गणेशजी सम्बन्धी जो शोधपूर्ण गुथ्थियाँ हैं, वे सुलझी हुई हैं, मगर दुर्भाग्य है कि शब्दाडम्बरपूर्ण अलंकारित साहित्य के बोझ तले वे सदैव उलझती गईं। आज उनका स्वरूप जिस रूप में है, वह किसी से छिपा हआ नहीं है। * दिगम्बर जैन धर्म संघ में दीक्षित आचार्य वर्ष 2003 का चातुर्मास मोंगावा, तह. धरियावद जिला प्रतापगढ़ (राज.) प्रात : 23.09.02 [इस वर्ष यह पर्व गणेश चतुर्थी 31 अगस्त को है - सम्पादक 78 अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526559
Book TitleArhat Vachan 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy