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________________ ने भौतिक सुखों का परित्याग कर अध्यात्म का विकास किया है। यह भौतिक तथा अध्यात्म का समन्वय ही हमारी संस्कृति की महत्वपूर्ण उपलब्धी है और यही सच्चा विकास है। __ हमारी सांस्कृतिक विरासत में कई अमूल्य सम्पदा का खजाना भरा पड़ा है। उसे खोजने, समझने तथा अनुसरण करने की आवश्यकता है। हमारी कई पाण्डुलिपियाँ विदेशों में देखी जा सकती हैं जो उनके यहां आधुनिक अनुसन्धान का आधार बनी हुई है। आज इसे खोजने और चिन्तन करने की आवश्यकता है क्योंकि अब तो विकास का केन्द्र बिन्द श्रम नहीं, पूंजी नहीं ज्ञान होने वाला है। उत्पादन ढाँचे में बहुत जल्दी तीव्र बदलाव आने वाला है जिससे हमारी उत्पादन क्षमता कई गुना बढ़ जावेगी। महावीर वाणी में आचार्य रजनीश ने लिखा है कि अब मनुष्य को अपनी आवश्यक सुख सुविधा जुटाने के लिये मात्र 2-3 घंटे कार्य करना पड़ेगा। इस प्रकार तकनीकी ज्ञान के कारण कार्य की अवधि कम हो जावेगी। ऐसे में मनुष्य के पास आराम के घंटे बढ़ जावेगे। इनका उपयोग यदि समाज स्वाध्याय की ओर करा सका तो समाज का विकास होता जावेगा और इस ओर प्रवृत्त नहीं कर सके तो यह खाली समय अथवा दिमाग कई विकृतियाँ उत्पन्न करेगा। इसीलिये यह हमारा कर्त्तव्य है कि हम अपने लोगों को स्वाध्याय की ओर प्रवृत्त करें। ध्यान की संस्कृति इसी प्रकार वैज्ञानिकों ने हमारी सांस्कृतिक विरासत में 'ध्यान' पर काफी खोज की है। उनका मत है कि हम अपने मस्तिष्क की क्षमता के मात्र कुछ ही भाग का उपयोग कर पाते हैं। ध्यान के द्वारा इसकी उपयोग सीमा को बढ़ाया जा सकता है। ध्यान के माध्यम से मस्तिष्क को Super Computer बनाया जा सकता है। वास्तव में ध्यान विज्ञान भी है और कला भी। ध्यान दरअसल में आध्यात्मिक तकनीक है। इसमें मानव मन में उत्पन्न होने वाले अनन्त विचारों के प्रबन्धन की कला है। इससे मन का विचलन कम हो जाता है। ध्यान का जितना आध्यात्मिक मूल्य है उतना ही व्यावहारिक मूल्य भी है। आन्तरिक आनन्द या अपरिमित आनन्द तो ध्यान की चरम अवस्था है। ध्यान से उर्जा का संचार और केन्द्रीयकरण किया जा सकता है। वास्तव में हम भौतिक उपभोग से उर्जा का ही संचार करते हैं। इसी प्रकार हमारी संस्कृति में योग / वास्तु आयुर्वेद आदि में जीवन जीने की कला के सम्बन्ध में काफी खजाना भरा है। उसके उपयोग से हम अपने भौतिक जीवन तथा आध्यात्मिक जीवन को निखार सकते हैं। इसीलिये आज हमारी सांस्कृतिक विरासत जो पाण्डुलिपियों के अन्दर भरी पड़ी है उसके संरक्षण, समझने और उस पर वैज्ञानिक सोच की आवश्यकता है। इसके द्वारा ही हम सच्चे अर्थों में अपना कल्याण कर सकेंगे। मुझे यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई कि कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पाण्डुलिपियों के संरक्षण के कार्य में अपनी प्रभावी भूमिका निभा रहा है। मैं इस कार्य में उनकी सफलता की कामना करता हूँ। कुंदकुंद व्याख्यान में मुझे यह अवसर देने के लिये आप सबका आभार। सन्दर्भ स्थल : 1. तत्वार्थ सूत्र 9/19,9/20 2. पद्मनन्दि पंचविंशतिका, आ. पद्मनन्दि, 1977 3. मानव संसाधन विकास प्रतिवेदन 2002, यू.एन.डी.पी. प्रकाशन 4. Resources Values and Development - Amartya Oxford University Press, 1999 5. महावीर वाणी, भाग - 1, आचार्य रजनीश प्राप्त - 15.06.03 अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526559
Book TitleArhat Vachan 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size12 MB
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