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में ऊर्जा का संचार प्रारम्भ हो जाता है तथा यह ऊर्जा महामंत्र के तीसरे पद 'णमो आयरियाणं' का उच्चारण पीत वर्ण के माध्यम में करने पर और अधिक बढ़ जाती है। इसी प्रकार जब महामंत्र के चौथे पद 'णमो उवज्झायाणं' का उच्चारण हरित वर्ण के माध्यम में किया जाता है तब संचित ऊर्जा और अधिक घनीभूत हो जाती है। महामंत्र के अन्तिम पद 'णमो लोएसव्वसाहूणं' का उच्चारण नील वर्ण या काले वर्ण के माध्यम में करने पर संचित ऊर्जा अपने चरम पर होती है। इस प्रकार संचित ऊर्जा का उपयोग हम आत्मा स्थित दिव्य शक्तियों के प्रकट होने में लगा देते हैं जिससे निरन्तर कर्मबंध कटते रहते हैं। उपर्युक्त प्रक्रिया को पुन: पुन: दोहराया जाता है। अधिक उत्तम होगा यदि प्रत्येक पद को लगातार कम से कम नौ बार एक ही वर्ण पर केन्द्रित कर दुहराया जाये। ऐसा करने में णमोकार महामंत्र की एक बार में नौ जाप हो जाती हैं।
अन्त में प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या णमोकार महामंत्र का उच्चारण बगैर माध्यम के करना कारगर नहीं होगा? उत्तर - निश्चित होगा, परन्तु तब, जब महामंत्र का जाप पूरी एकाग्रता से किया गया हो। वर्गों का माध्यम चित्त की एकाग्रता बढ़ाता है। आलेख को पढ़कर पुन: प्रश्न उठेगा कि क्या साधु परमेष्ठी के नाम का उच्चारण सर्वाधिक ऊर्जा प्रदान करने वाला होता है, मेरी दृष्टि में निश्चित होता होगा क्योंकि कबीर जैसे आध्यात्मिक चिन्तक के अनुसार -
गुरु गोविन्द दोनों खड़े काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय॥ कर्मबन्ध कटने के साथ - साथ जो आगमानुसार है, मेरा स्वयं का अनुभव है कि महामंत्र का प्रतिदिन लगभग 1 घंटा किया गया जाप उच्च एवं न्यून रक्तचाप को नियंत्रित कर लगभग सामान्य कर देता है। साथ में मेरा यह भी मानना है कि अन्य दूसरी व्याधियों का उपचार भी महामंत्र द्वारा संभव है परन्तु इसके सत्यापन हेतु एक सुसज्जित प्रयोगशाला में अनुसंधान करने की अत्यन्त आवश्यकता है। सन्दर्भ: 1. मानसार, 55/44 2. महाकवि कालिदास, ऋतुसंहारम् 2/51
प्राप्त : 06.05.02
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अर्हत् वचन, 15 (3), 2003
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