SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मात्र मिल जाता है। आयुर्वेद में भी उपवास के महत्व को स्वीकारा गया है।" उपवास में आहार का स्थान करने से आमाशय खाली हो जाता है तथा जरामि के रूप में जो उर्जा आहार 58 बजाई करती है, न रुपयोग पाचन तंत्र की सफाई में लग जाता है। जोश इस जयग्नि समाप्त कर देती है जिससे मता बढ़ने लगती है। उपवास शरीर है रक्त भी शुद्ध होने काि यहाँ यह बर राग्नि का मुख्य कार्य तो भोजन पचाना लिले सो पहले वह जापनी शक्ति का उपयोग विषद्रव्य हो जाने के भोजन ठीक से पचने N प्रकार हम देखते है कि उपवास हमारे शरीर को आरोग्य और शुद्धि प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। आज कल की भागदौड़ की जिन्दगी में तथा फास्ट फूड के जमाने में उम विषयों को पहले से अधिक इकट्ठा करते हैं प्रदूषित वातावरण तथा ऊपर से (जो स्वयं विष होती हैं तथा उनके ऊपर कई बार लिखा की से दूर रखो इन्हें और अधिक बढ़ाते हैं। ऐसी स्थिति आरोग्य की दृष्टि से हितकर ही है। हमारे मैं राक्ष आचार्यों भी भूल सक शरीर निरोग रखने का निर्देश दिया है। संभवत: उनकी उनी नुपात शरीर में न होने पाये। यदि उसे सता जा सकता है तथा अन्तर्मुखी हुआ जा सकता है कुछ लोग प्राय यह कह उपवास ही रखना है तो अष्टमी और चतुर्दशी को ही नहीं? इस पर कुछ विचारकों ने अपना चिन्तन व्यक्त किया है कि इन दिनों और चन्द्र की स्थिति कुछ ऐसी होती है जो हमारी जठराग्नि को करती है। अत: इस दिन जो भोजन करते हैं वह ठीक से पच नहीं पाता है। और जो मन्द प्रकृति की जठराग्नि उन दिनों होती है वह विषद्रव्य को जला देने के लिए पर्याप्त होती है। उपवास पर गाँधीजी के विचार गाँधीजी 19 के महत्वपूर्ण पाना है। उन्होने उपवास गरने की सलाह भी दी है। यहाँ सकता है ईश्वर अल्लाह, गौड कुदरती (प्राकृतिक उपचार के दो स्वाय जल्दी से अच्छा होता है। दोनों को निरोगी रखने के लिए उपवास को बहुत भोजन त्याग करने के साथ- साथ रामनाम का जाप से उनका तात्पर्य था कि यह कुछ भी हो या फिर कुछ भी जिस पर आप श्रद्धा रखते हो। भी भोजन त्याग के साथ साथ रामनाम जपने से उनका यह विश्वास था कि स्वास्थ्य के बारे में सादे फालसा शरीर, मन और आत्मा को पूर्ण स्वस्थ स्थिति में रखा पाल जा सकता है। के दौरान अहंकार आदि के अभाव की बात भी उन्होंने कही है। यदि इन कषायों का त्याग हो, रामनाम का जाप करता हो और भोजन का त्याग कर दिया अर्हतु वचन, 15 (3), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only 27 www.jainelibrary.org
SR No.526559
Book TitleArhat Vachan 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy