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________________ को प्राप्त हो जावें, लोक में सर्वदा सम्पूर्ण प्रकार से सुखी रहें। मा कातिकोऽपि पापानि, माचभूत कोषिताति:: सत्यता पदमति मैत्री लाद्यते।।12 से रहित हो जायें, इसी प्रकारका का नसा वाया सदेवपिन सनीति मैत्री, मैत्रीविध कला 113 काय, मन, वचन से सम्पूर्ण जी के प्रति मा माहार करना जिससे दूसरों को कष्ट न पहुँचे हरणी प्रा के व्यवहार को मैरी महार करते है। पूज्यपाद स्वामी श्री विश्व कल्याण के लिये कान के सूत्र दिये हैं, वे गवत रलवान्धामिमा भूमिपाल: । प ... नया वाचया गान्तु नाशम् ।। सारे जगतां मरनलोवलोके। मन्दं धर्मच प्रभन्नु सर पदायि!!14 सम्मोदानः नेता शक्ति सम्पन्न होवें, समय - समय देव र भार, नाकात दो। दर्भिक्ष, सी, डकैती, आतंकवाद, दु.ख, कलह ति, एक क्षण के लिये भी हालात में न रहें। सब जीवों को राख प्रदान करने वाले जिनेन्द्र भगवान का अभा, ता, दया, सत्य, मैत्री, संगटन आदि) सतत् प्रथा मान रहे। उपनिषदद में भी किस बोर के घुमान कम करने के लिये कहा . . सालान्य पश्यति! स पने, ततो न चिन सते॥ जो अन्तन के द्वारा सब भूतों (प्राणियों को अपनी आत्मा में ही देखता है और अपनी आत्मा को फिर किसी से पणा न करता है। पर्यावरण सुरक्षाका - भावशुद्धि 'जो पिण्डे सो अभाडे, सोमाया लिहितात्म शान्ति' आदि भारत के महानतम सूत्रों में अन्तरंग - बहिरंग, व्यक्ति- सागः, पिण्ड - ब्रह्माण्ड की शुद्धता - सुरक्षा - संवृद्धि के उपाय बताये गये हैं। भाव - अशुद्धि के कारण व में अन्धश्रद्धा, हिंसा, अब्रह्मचर्य, असावधानी आदि दोष उत्पन्न होते हैं, जिससे समस्त प्रकार के प्रदूषण फैलते हैं तथा पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं। अशुद्ध भाव से शरीर की विभिन्न ग्रन्थियों से जो रासायनिक स्राव निकलता है वह शरीर, मन, इन्द्रियों को अस्वस्थ्य, दुर्बल, प्रदूषित बनाता है तथा जो अशुद्ध भावनात्मक तरंगें निकलती हैं वे तरंगें भी अदृश्य/सूक्ष्म परन्तु प्रभावशाली रूप से पर्यावरण को प्रदूषित करती हैं। अभी तक वैज्ञानिक, पर्यावरणविदों ने जो जल, मृदा, वायु, शब्द आदि प्रदूषणों के बारे में शोध - बोध, प्रचार - प्रसार किया है वे सब अत्यन्त स्थूल, उथला है। इनके द्वारा प्रतिपादित पर्यावरण सुरक्षा के उपाय भी स्थूल, उथले, अवैशिक, अशाश्वतिक हैं, परन्तु अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526559
Book TitleArhat Vachan 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size12 MB
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