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________________ स्थिर होकर अति शीघ्र निर्वाण पद को प्राप्त करता है। यह है सर्वोत्कृष्ट, साम्यवाद, गणतंत्रवाद, समाजवाद, लोकतंत्रवाद - पर्यावरण सुरक्षा। प्राणा यथात्मनोऽभीष्टा: भूतानामपि ते तथा। आत्मौपम्येन मन्तव्यं बुद्धिमद्भिर्महात्माभिः॥३ जैसे मानव को अपने प्राण प्यारे हैं, उसी प्रकार सभी प्राणियों को अपने-अपने प्राण प्यारे हैं। इसलिये जो लोग बुद्धिमान और पुण्यशाली हैं, उन्हें चाहिये कि वे सभी प्राणियों को अपने समान समझें। यथा अहं तथा एते, यथा एते तथा अहं। अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये॥ जैसा मैं हूँ वैसे ये हैं तथा जैसे ये हैं, वैसा मैं हूँ - इस प्रकार आत्म सदृश्य मानव किसी का घात करें न करायें। सव्ये तसन्ति दण्डस्य, सव्वेसिं जीवितं पियं। असान उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये॥5 भाग दण्ड से डरते हैं, मृत्यु से भय खाते हैं। दूसरों को अपनी तरह जानकर किसी को मारें और न किसी को मारने की प्रेरणा करें। यो न हन्ति न घातेति, न जिनाति न जापते। मिसो सव्वभूतेस वेरं तस्स न केनचीति॥ जो न स्वयं किसी का घात करता है, न दूसरों से करवाता है, न स्वयं किसी को जीतता है, न दूसरों को जीतवाता है, वह सर्व प्राणियों का मित्र होता है, उसका किसी के साथ पैर नहीं होता। आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्। जो कार्य तुम्हें पसन्द नहीं है, उसे दूसरों के लिये कभी मत करो। सव्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्। माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्तौ, सदा ममात्मा विदधात देव॥ __ हे भगवान! मेरा प्रत्येक जीव के प्रति मैत्री भाव रहे, गुणीजनों में प्रमोद भाव रहे, दुःखीजनों के लिये करुणाभाव रहे, दुर्जनों के प्रति मेरा माध्यस्थ भाव (साम्यभाव) आत्मवत्परत्र कुशल वृत्ति चिन्तनं शक्तिस्त्याग तपसी च धर्माधिगमोपाया:।' अपने ही समान दूसरे प्राणियों का हित (कल्याण) चिंतवन करना, शक्ति के अनुसार पात्रों को दान देना और तपश्चरण करना ये धर्म प्राप्ति के उपाय हैं। सर्वेऽपि सुखिन: सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्त मा कश्चित द:ख माप्नयात।।10 सम्पूर्ण जीव जगत् सुखी, निरोगी, भद्र, विनयी, सदाचारी रहें। कोई भी कभी भी थोड़े से दुःख को प्राप्त न करे। शिवमस्तु सर्वजगत: परहित निरता भवन्तु भूतगणाः । दोषा प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवतु लोकः।। सम्पूर्ण विश्व मंगलमय हो, जीव समूह परहित में निरत रहें, सम्पूर्ण दोष विनाश 18 अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526559
Book TitleArhat Vachan 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size12 MB
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