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'जैन साहित्य का संस्कृत वाङ्गमय में योगदान' संगोष्ठी सम्पन्न
जयपुर में दिनांक 22.1.03 को पं. चैनसुखदास व्याख्यानमाला के आयोजन की अध्यक्षता माननीय श्री ज्ञानचन्दजी खिन्दूका ने की। मुख्य अतिथि के रूप में प्रो. सत्यदेव मिश्र, कुलपति-राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर तथा मुख्य वक्ता प्रो. भागचन्दजी जैन 'भागेन्दु' ने "जैन साहित्य का संस्कृत वाङ्गमय में योगदान' विषय पर आलेख वाचन किया।
संस्था के उपाध्यक्ष श्री महेन्द्रकुमारजी पाटनी ने समाज के अतिथियों का स्वागत किया। संस्था के मंत्री श्री रमेशचन्दजी पापड़ीवाल ने व्याख्यानमाला एवं संस्था का परिचय दिया। डॉ. सनतकुमार जैन ने व्याख्यानमाला के आयोजन की प्रायोजना प्रस्तुत की। मुख्य वक्ता प्रो. भागचन्द जैन 'भागेन्दु' ने अपने आलेख में कहा कि संस्कृत जैन कवियों ने एक शब्द के 24-24 अर्थ प्ररूपित किये हैं। जैनाचार्यों ने संस्कृत ग्रन्थों में विस्तार से श्रावक और साधु के आचरण का वर्णन किया है। द्वितीय शताब्दी से लेकर 20 वीं शताब्दी तक संस्कृत जैन कवियों ने विपुल संस्कृत साहित्य रचा है।
मुख्य अतिथि प्रो. सत्यदेव मिश्र ने अपने उद्बोधन में कहा कि प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश एवं राजस्थान में रचित संस्कृत साहित्य का व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार होना चाहिये। अध्यक्षीय उद्बोधन में श्री ज्ञानचन्दजी खिन्दूका ने पं. चैनसुखदासजी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला। समारोह में अतिथियों का शाल व श्रीफल भेंटकर संस्था की ओर से स्वागत किया गया। अन्त में डॉ. प्रेमचन्दजी रांवका ने समागत अतिथियों के प्रति आभार प्रकट किया। संगोष्ठी का संचालन श्री सतीश कपूरजी ने किया।
. डॉ. सनतकुमार जैन, प्राचार्य
मैसूर विश्वविद्यालय एवं श्रवणबेलगोला के प्राकृत संस्थान में विशेष व्याख्यान
दिनांक 6 एवं 7 फरवरी, 2003 को प्राकृतविद्या के संपादक डॉ. सुदीप जैन मैसूर एवं श्रवणबेलगोला में वहाँ के संस्थानों के विशेष निमंत्रण पर पधारे, तथा दिनांक 6 फरवरी को मैसूर विश्वविद्यालय के 'जैन विद्या एवं प्राकृत' विभाग में उनका 'वर्तमान संदों में प्राकृतभाषा एवं साहित्य के प्रचार-प्रसार की आवश्यकता एवं उपयोगिता' विषय पर अत्यन्त सारगर्भित व्याख्यान हुआ, जिसमें उन्होंने राजधानी नई दिल्ली में कुन्दकुन्द भारती की प्रेरणा से प्राकृतभाषा और साहित्य के क्षेत्र में संचालित गतिविधियों का प्रभावी परिचय देते हुए देशभर में प्राकृतभाषा और साहित्य के अध्ययन-अध्यापन के लिए स्वतंत्र - विभाग निर्माण किए जाने की परियोजना पर दिशा-निर्देश प्रस्तुत किए। उन्होंने स्पष्ट किया कि "सरकार से पहिले आर्थिक संसाधन की मांग किए बिना यह आवश्यक है कि हम प्राकृतभाषा और साहित्य के प्रति लोगों में आकर्षण उत्पन्न करें, तथा बड़ी संख्या में इसके पाठ्यक्रम विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों एवं अन्य शैक्षणिक संस्थाओं में संचालित कर सरकार को इनकी अनिवार्यता का बोध कराएँ और फिर इनके स्वतंत्र विभाग खोलने के लिए पुरजोर प्रयत्न करें।"
दिनांक 7 फरवरी 03 को श्रवणबेलगोला के 'राष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन एवं समाशोधन केन्द्र' में शोध छात्रों एवं जिज्ञासुओं के बीच उनका विशेष व्याख्यान आयोजित किया गया, जिसमें उन्होंने प्राकृतभाषा और साहित्य के क्षेत्र में शोध की अपार संभावनाओं, विषयों एवं परियोजनाओं के बारे में केन्द्र सरकार, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग एवं विभिन्न शैक्षिक संस्थाओं से लिए जा सकने वाले सहयोग का परिचय देते हुए राष्ट्रहित, समाजहित एवं साहित्य के हित में प्राकृतभाषा और साहित्य के क्षेत्र में बहुआयामी शोध के कार्यों को प्रोत्साहित करने का दिशाबोध दिया।
श्रवणबेलगोला में भट्टारक श्री चारूकीर्ति स्वामी के साथ उनकी भी दो घंटे गंभीर चर्चा हुई, जिसमें प्राचीन ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों के संरक्षण तथा प्राकृत भाषा और साहित्य के क्षेत्र में बहुआयामी कार्य योजनाओं के निर्माण के विषय में व्यापक विचार विमर्श हुआ। पूज्य स्वामीजी ने डॉ.सुदीप जैन को शॉल एवं श्रीफल भेंट कर सम्मानित किया।
- डॉ.एन.सुरेश कुमार,निदेशक
अर्हत् वचन, 15 (3), 2003
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