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________________ अंधेरे में माचिस तलाशता हुआ हाथ अंधेरे में होते हुए भी अंधेरे में नहीं होता। दूसरों के लिये हमारी उपादान की शून्यता जहाँ हमें अहंकार से बचाती है वहीं दूसरों के लिये हमारी निमित्त की भूमिका हमें अपनी तुच्छता के बोध से भी बचा लेती है। आज दुनिया जिन भयावह परिस्थितियों में जी रही है उसका मूल कारण हमारे द्वारा ओढ़ा गया मुखौटा है। मन - वचन और कर्म की एकरूपता के बिना जीवन को सहज ढंग से नहीं जिया जा सकता। आज जो नहीं है, वह मनुष्य दिखना चाहता है और जो है उसे छिपाना चाहता है। इसी छिपाने और ओढ़ने के प्रयास में मनुष्य का जीवन कष्टप्रद हो गया है। इस दुःख से बचने का उपाय रूप हमारे आचार्यों ने सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की बात कही है और इसे ही मोक्ष का मार्ग बताया है। इसीलिये हमारी दृष्टि को इन तीनों के भेदत्व पर बनाये रखना है। भगवान महावीर हर तरह के भेद - भाद, आडम्बर और कर्मकाण्ड के विरोधी थे और दूसरों की महत्ता के पक्षधर थे। डॉ. जलज के अनुसार 'वस्तु स्वरूप की सही समझ के कारण महावीर की दृष्टि में 'ही' नहीं 'भी' समाया हुआ है। वे चाहते हैं कि दूसरों के लिये हाशिया छोड़ा जाय। दूसरों के लिये हाशिया छोड़ना कायरता नहीं ऊँचे दर्जे की वीरता है। देश की रक्षा के लिये सम्यज्ञान पूर्वक शत्रु का वध भी हिंसा नहीं है। हिंसा तो तब है जब उन्माद और अहंकार के वशीभूत होकर किसी के सुख या प्राणों का हरण किया जाय।' आलोच्य पुस्तक में डॉ. जलज ने आचार्यों द्वारा प्रणीत धर्म ग्रन्थों के सूत्र द्वारा इस बात की पुष्टि भी की है। महात्मा गांधी ने भी भगवान महावीर के इन्हीं सिद्धान्तों को अपने जीवन में अपनाया था। लेखक ने आज की भयावह समस्याओं का समाधान महावीर के इसी चिंतन में खोजा है। वे लिखते हैं - 'मनुष्य और पृथ्वी को बचाये रखने के लिये इन चुनौतियों का शांत, संयत और स्थायी मुकाबला महावीर को याद रखकर ही किया जा सकता है।' भगवान महावीर के जन्म के वर्षों बाद क्या हम उनके विचारों और आचरण की ओर लौटने का प्रण करेंगे। अभी भी देर नहीं हुई है। गलत दिशा में हजार दो हजार मील तक चले आने के बाद भी सही दिशा पकड़ने के लिये हमें फिर हजार दो हजार मील नहीं चलना है। सिर्फ पलटना भर है और हम सही दिशा में होंगे। इसलिये कर्म का बंधन कितना ही कठिन हो, मुसीबत और बाधाएँ कितनी ही दुर्निवार हों, भगवान महावीर के मार्ग पर चलने की, उन्हीं की तरह मुक्त होने की कोशिश निरन्तर करनी चाहिये। लेखक ने इसी मन्तव्य को काव्यमयी शैली में प्रस्तुत किया है - बहरी दिशाएँ हैं शब्द घुटे जाते हैं कौन हवा चलती है सब लुटे जाते हैं खुली इस हथेली पर एक रतन और रोशनी उगाने का एक जतन और अभी एक जतन और। प्रस्तुत पुस्तक डॉ. जयकुमार जलज द्वारा सहज, सरल, सुबोध शैली में लिखी गई भगवान महावीर के बुनियादी चिंतन को विवेचित करती हुई सुधी अध्येताओं के लिये उपयोगी बन गई है। 114 अर्हत् वचन, 15 (3), 2003 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526559
Book TitleArhat Vachan 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2003
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size12 MB
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