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________________ वर्ष-14, अंक-4, 2002, 61-68 अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर षट्खंडागम और धवला, जयधवला, महाधवला आदि उसकी टीकाएँ - डॉ. गुलाबचन्द जैन* आत्मश्रद्धान, आत्मज्ञान एवं आत्मरमणतापूर्वक मन, वचन, काय के सम्यक निरोध तथा कठिन तपश्चरण के पश्चात् तीर्थकर प्रकृति की पूर्णता स्वरूप केवलज्ञान की प्राप्ति होती है तथा कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् तीर्थकरों का सर्वजन हिताय धर्मचक्र प्रवर्तन प्रारम्भ होता है। धर्मचक्र प्रवर्तन के पूर्व इन्द्रादिक देवताओं द्वारा समवशरण की रचना की जाती है। समवशरण में विराजमान तीर्थकर भगवंतों की वाणी श्रवण करने हेतु मुनि-आर्यिका, देव-देवियाँ, नर - नारी, पशु-पक्षी आदि सभी समवशरण स्थल पर एकत्रित होकर भगवान की ओंकार रूप निरक्षरी वाणी को अपनी-अपनी भाषा में सरलतापूर्वक समझ कर आत्म कल्याण करते हैं। तीर्थकरों की वाणी में अर्थागम की प्रधानता होती है जिसे कुशाग्र बुद्धि गणधर शब्द शरीर प्रदान करते हैं। तीर्थंकरों के प्रवचनों में करणानुयोग, द्रव्यचर्चा, चारित्रनिरूपण एवं सात्विक विवेचन आदि सभी सिद्धान्तों पर चर्चा होती है। गणधर उन सर्वधर्मात्मक प्रवचनों में से चारित्र विषयक वार्ताओं को आचारांग में, कथांश को ज्ञातृधर्म कथा एवं उपासकाध्ययनांग में तथा प्रश्नोत्तर को व्याख्या - प्रज्ञप्ति एवं प्रश्न व्याकरण आदि अंशों में समाहित कर आगम की रचना करते हैं। इस प्रकार भगवान की वाणी से नि:सत मूलगाथाओं एवं वाक्यांश तथा गणधरों द्वारा उनकी भाषा में प्रस्तुत भाष्य व अर्थ को आगम या मूल सिद्धान्त कहा जाता है। आचार्यों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त प्रामाणिक होने पर भी आगम की श्रेणी में नहीं आते हैं, उन्हें सिद्धान्त ही कहा जाता है। आगम - श्रुत या सिद्धान्त अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य दो भागों में विभक्त हैं। भाव की अपेक्षा श्रुत अनादि निधन है - वह न कभी उत्पन्न होता है और न कभी उसका विनाश होता है। जबकि द्रव्यश्रुत कालाश्रित है। योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल में ज्ञानी, निग्रंथ, वीतरागी आचार्यों द्वारा प्रकृष्ट ज्ञान के रूप में इसकी उत्पत्ति होती है तथा इससे विपरीत अवस्थाओं में बाह्य विघ्न बाधाओं के कारण इसका विनाश, अभाव भी हो जाता है। राजगृह नगरी के विपुलाचल पर्वत पर रौद्र मुहूर्त में, चन्द्रमा के अभिजित नक्षत्र में रहते तीनों लोकों में पूज्य भगवान वर्द्धमान स्वामी द्वारा धर्म तीर्थ प्रवर्तक दिव्य उपदेश - भावश्रुत प्रसारित हआ था जिसे चारों वेदों में पारंगत एवं षडंग विद्याओं में निपुण सच्चरित्र श्रेष्ठ ब्राह्मण कुलोत्पन्न इन्द्रभूति गौतम ने बारह अंगों और चौदह पूर्व के रूप - श्रुतपर्याय में परिणित किया। अत: द्रव्यश्रुत के कर्ता गौतम गणधर हैं। शिष्यों को विस्तृत रूप से समझाने के लिये मनीषी आचार्यों द्वारा दशवैशालिक एवं उत्तराध्ययन के रूप में रचित द्वादशांग श्रुत को अंगप्रविष्ट श्रुत तथा तीर्थंकरों की वाणी की मूल भावनाओं के अनुरूप अर्थ रूप में रचित श्रुत को अंगबाह्य श्रुत कहा जाता है। साधारण अंतर होने पर भी, तीर्थकरों के प्रवचनकाल में उपस्थित बुद्धि एवं ऋद्धिधारी केवली तथा श्रुतकेवली गणधरों द्वारा निबद्ध किये जाने के कारण दोनों ही श्रुत प्रामाणिक हैं। अंगप्रविष्ट श्रुत आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्या - प्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदश, अंत:कृतदश, अनुत्तरोपादिक दश, प्रश्न - व्याकरण, विपाकसूत्र तथा दृष्टिप्रवाद रूप बारह अगों में विभाजित है। * Co. राजकमल स्टोर्स, विदिशा (मप्र) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526556
Book TitleArhat Vachan 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size9 MB
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