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________________ की जाती है। इस हिंसा का उद्देश्य शांति बनाये रखना व न्याय प्राप्त करना हैं। बाह्य परिस्थितियाँ व्यक्ति को इस बात के लिये विवश कर देती है कि वह आत्मरक्षा या दूसरों की रक्षा के लिये हिंसक तरीका अपनाये। गृहस्थ व्यक्ति स्वयं को इस तरह की हिंसा से पूर्ण रूप से मुक्त नहीं रख सकता हैं। गांधीजी ने विरोध के अहिंसक तरीके को सफलतापूर्वक अपनाया था। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति के लिये विरोध के अहिंसक तरीके से सफलता प्राप्त करना संभव नहीं हैं। सिर्फ वह व्यक्ति जो शरीर व भौतिक पदार्थों के प्रति अनासक्ति रखता हो तथा जिसका हृदय, ईर्ष्या - द्वेष से मुक्त हो वही अपने अधिकारों की रक्षा अहिंसक तरीके से कर सकता हैं। जैन धर्म के अनुसार रक्षात्मक क्रियाओं और युद्ध के दौरान होने वाली हिंसा की मात्रा को जितना संभव हो सके कम से कम करना चाहिये तथा निर्दोष व्यक्ति को तो किसी भी कीमत पर नहीं मारना चाहिये। जैन विचारकों ने अहिंसक युद्ध के तरीकों का तथा युद्ध में हिंसा की मात्रा कम से कम हो का उल्लेख किया हैं। 3. व्यावसायिक हिंसा - इस प्रकार की हिंसा कृषि तथा उद्योग धंधों में होती हैं। जीविकोपार्जन के लिये तथा शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये जानबूझकर की गई हिंसा से मुक्त रहना असंभव हैं। इस हिंसा को भी न्यूनतम करने का प्रयास करने का निर्देश है। 4. दैनिक क्रियाकलापों से संबंधित हिंसा - इस प्रकार की हिंसा का संबंध दैनिक क्रिया कलापों जैसे - नहाना, भोजन बनाना, घूमना आदि से हैं। जैन धर्म में गृहस्वामी द्वारा जानबूझकर की गई हिंसा निषिद्ध हैं भले ही वह जीवन और व्यवसाय के लिये आवश्यक क्यों न हो। हिंसा के कुछ रूप हमारे जीवन में अवश्यंभावी हैं लेकिन इसका यह तात्पर्य कदापि नही है कि वर्तमान में अहिंसक आचरण अनुपयोगी है। जिस प्रकार हिंसा जीवन के लिए आवश्यक है उसी प्रकार अहिंसा मानव समाज के अस्तित्व के लिये आवश्यक हैं। पृथ्वी पर शांति स्थापित करने तथा समृद्धि की रक्षा करने का एक मात्र तरीका अहिंसा हैं। अहिंसा दुनिया का सबसे श्रेष्ठ व शक्तिशाली हथियार हैं और इसका मुकाबला कोई अणुबम भी नहीं कर सकता। जैन धर्म में "अहिंसा परमो धर्म' माना गया हैं। जैन धर्म में दो तरह की हिंसा को स्वीकारा गया हैं द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा। भगवान महावीर ने विश्वशांति स्थापित करने के लिये तीन अहिंसक तरीकों का उल्लेख किया हैं - समभाव 14, प्रेम व मैत्री 15, सेवाभाव 16। भगवान महावीर जिस धर्म की बात कहते हैं वह परस्पर प्यार का धर्म है, स्नेह सौहार्द्र का धर्म है, सदभाव सदाचार का धर्म है, आत्मीयता अपनत्व का धर्म है। अहिंसा अध्यापन का विषय उतना नहीं हैं, जितना अध्ययन और आचरण का। नागरिकों में अहिंसा चेतना का विकास हो, इसके लिये समाज व्यवस्था को भी अहिंसक बनाना होगा। मनुष्य को विधाता ने बुद्धि और तार्किक शक्ति दी हैं, जिससे वह हिंसा को नकार सकता है। इस व्याधि को समाप्त करने के लिये विवेक जागृत करने वाली शिक्षा का प्रसार होना चाहिए। हिंसा बढ़ रही है, क्योंकि उसका विधिवत प्रशिक्षण होता हैं, हिंसा की तरह अहिंसा का भी प्रशिक्षण मिलता रहे, तो हिंसा को रोका जा सकता हैं। राष्ट्र में सैनिक अकादमियाँ तो बहत स्थापित हो गई लेकिन अब शांति अकादमियाँ स्थापित करना होगी। वर्तमान समय में भगवान महावीर का (जीओ और जीने दो) का संदेश अत्यन्त अर्हत् वचन, 14(4), 2002 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526556
Book TitleArhat Vachan 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size9 MB
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