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________________ हैं कि दूसरों को किसी भी प्रकार का आघात न पहुँचे चाहे स्वयं को आघात लग जाये। नैतिक दृढ़ता, प्रेम व करूणा, संयम, सहनशीलता, सहानुभूति, त्याग, क्षमा, सत्य और अहिंसा आदि से परिपूर्ण व्यक्ति को देखकर हिंसावादी व्यक्ति के भय, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, अहंकार, प्रतिदत्तंदिता आदि अवगुण लुप्त हो जाते हैं। अहिंसा के सिद्धांत की प्रासंगिकता - संसार में सर्वत्र आतंकवाद का तांडव नजर आ रहा हैं ऐसी दशा में शांति की खोज करना स्वाभाविक हैं। शांति स्थापना हेतु प्रभावशाली संचार, आत्मसम्मान में वृद्धि, अनुकरणीय व्यवहार, प्रभावशाली वैचारिक विनिमय / संप्रेषण तथा समानानुभूति आदि मनोवैज्ञानिक तरीकों की अहम् भूमिका होती हैं। संसार में आतंक और हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ रही है। हम विज्ञान और तकनीकी के युग में जी रहे हैं, मानव के भौतिकतावादी दृष्टिकोण के कारण जीवन में आध्यात्मिक मूल्यों और धार्मिक विश्वासों में कमी आती जा रही हैं। भगवान महावीर द्वारा बताये गये सिद्धांत जीवन जीने की एक ऐसी शैली हैं जिसे आत्मसात कर मनुष्य सुख व शांति से जीवनयापन कर सकता हैं तथा दूसरों के लिये भी सुख व शांति से जीने का मार्ग प्रशस्त कर सकता हैं। यह सिद्धांत है - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह और ब्रम्हचर्य। अहिंसा - किसी भी जीव को मत मारो, मत सताओं, मत हुकूमत करो, यह अहिंसा धर्म हैं। सत्य - मन में जो हो वही भाव प्रदर्शित करों। क्रोध, लोभ, भय मत करों। अचौर्य - इच्छाओं पर संयम रखों इच्छा से राग-द्वेष बढ़ता हैं यही दु:ख का कारण अपरिग्रह - संग्रह करने की प्रवृत्ति से लालच बढ़ता हैं जो कि दुःख का कारण हैं। ब्रह्मचर्य - वाणी व दृष्टि का संयम। आत्मा की गहराईयों में रम जाना। अहिंसा का इन सभी में सर्वोपरि स्थान हैं। विश्वस्तर पर भी यह धारणा स्थापित हो रही है कि किसी भी समस्या का स्थायी हल हिंसक तरीके से नहीं बल्कि अहिंसक ढंग से ही निकाला जा सकता है। बगैर भेदभाव के समस्त जीवों के प्रति समभाव ही अहिंसा है। अहिंसा के प्रत्यय को संसार के सभी धर्मो ने स्वीकार किया हैं। वेदों में कहा गया है कि "सृष्टि के समस्त प्राणियों को मित्र मानों' 10, यदी धर्म में कहा गया है कि किसी को मत मारो'' 10, ईसाई धर्म में ईसामसीह का कहना है कि "शत्रु से भी प्यार करो'' 11, इस्लाम धर्म में खुदा का विश्लेषण रहीम है अर्थात् समस्त विश्व पर दया करने वाला। हिन्दू धर्म के अनुसार "अहिंसा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है।' 131 जैन चिंतकों के अनुसार हिंसा के 4 प्रकार हैं - 1. जानबूझकर की गई हिंसा (संकल्पी) या आक्रामक हिंसा - यह हिंसा न तो आत्मरक्षा के लिये आवश्यक है और न ही जीवन के लिये। अतः सभी को इसका त्याग कर देना चाहिये क्योंकि इसका संबंध हमारी मानसिक प्रवृत्ति से हैं। 2. रक्षात्मक हिंसा - इस प्रकार की हिंसा आत्मरक्षा, दूसरों की रक्षा या संपत्ति की रक्षा के लिये अर्हत् वचन, 14 (4), 2002 22 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526556
Book TitleArhat Vachan 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2002
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size9 MB
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