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________________ अपितु अन्य सभी प्रकाशक करेगें। हमने पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से वर्ष 1999 में "जैन धर्म के विषय में प्रचलित भ्रांतियाँ एवं वास्तविकतायें' शीर्षक पुस्तक प्रकाशित की थी जिसमें 30 पुस्तकों की त्रुटियों को सूचीबद्ध किया था। बाद में 12 जून 2000 में माता जी ने हस्तिनापुर में इतिहासज्ञों एवं जैन दर्शन के विशेषज्ञों की एक बैठक NCERT के प्रतिनिधियों की उपस्थिति में बुलाई जिसमें NCERT की पुस्तकों में संशोधन का ठोस आधार बन सका। पूज्य माताजी की प्रशक्त प्रेरणा एवं मार्गदर्शन से ही जैन परम्परा के संरक्षण का यह कार्य अब रूप ले सका है। इस संपूर्ण प्रक्रिया में श्री खिल्लीमल जैन एडवोकेट (अलवर) एवं ब्र. (कु.) स्वाति जैन (संघस्थ - गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी) का सहयोग भी श्लाघनीय रहा। पूज्य आचार्य श्री विद्यानन्दजी महाराज ने भी इस विषय में पर्याप्त रूचि ली थी। पुस्तक 'प्राचीन भारत' एवं 'धार्मिक बहुलवाद' के आपत्तिजनक अंश "जैन धर्म के संस्थापक वर्धमान महावीर और बौद्ध धर्म के स्थापक गौतम बुद्ध दोनों क्षत्रिय वंश के थे और दोनों ने ब्राह्मणों की मान्यता को चुनौती दी। परन्तु इन धर्मों के उद्भव का यथार्थ कारण है पूर्वोत्तर भारत में एक नई कृषिमूलक अर्थव्यवस्था का उदया _ 'यदि महावीर को अन्तिम या चौबीसवें तीर्थकर मानें तो जैन धर्म का उद्भव काल ईसा पूर्व नवीं सदी ठहरता है।' 'स्पष्ट है कि इन तीर्थंकरों की, जो अधिकतर मध्य गंगा मैदान में उत्पन्न और बिहार में निर्वाण प्राप्त हुए, मिथक कथा जैन सम्प्रदाय की प्राचीनता सिद्ध करने के लिये गढ़ी गई हैं। किन्तु यथार्थ में जैन धर्म की स्थापना उनके आध्यात्मिक शिष्य वर्धमान महावीर ने की। 'अपनी 12 साल की लम्बी यात्रा के बीच उन्होंने एक बार भी अपने वस्त्र नहीं बदले।' 'उनका निर्वाण 488 ई.पू. में यहत्तर साल की उम्र में आज के राजगीर के समीप पावापुरी में हुआ।' 'जैन धर्म में युद्ध और कृषि दोनों वर्जित हैं।' 'यौद्ध और जैन दोनों ही धर्म मूल रूप से प्राचीन हिन्दू धर्म की ही शाखायें "जैन धर्म के अनुसार समय को चौबीस महाचक्रों में विभाजित किया गया । है और एक महाचक्र में एक तीर्थकर अवतरित होते हैं।' - 'यह विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि दिगम्बर सम्प्रदाय में स्त्री तपस्वी, जिसे साध्वी कहा जाता है, नहीं होती है। अर्हत् वचन, 14(2 - 3), 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526554
Book TitleArhat Vachan 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2002
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size9 MB
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