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________________ अर्हत्व कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर सम्पादकीय परम्परा के बिना प्रगति संभव नहीं डॉ. ओम नागपाल स्मृति व्याख्यान परम पुनीत दशलक्षण पर्व के मध्य भाद्रपद शुक्ला षष्ठी तदनुसार 12 सितम्बर 2002 की शाम अत्यन्त महत्वपूर्ण थी। इस दिन इन्दौर के प्रसिद्ध रवीन्द्र नाट्य गृह सभागार में प्रथम डॉ. ओम नागपाल स्मृति व्याख्यान देते हुए भारत के केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री एवं प्रसिद्ध भौतिकविद् डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने कहा कि 'परम्परा के बिना प्रगति संभव नहीं है। यदि हमें लम्बी छलांग लगानी है तो एक पैर उठाने के साथ ही दूसरा पैर मजबूती के साथ जमीन पर रखना होगा। जमीन पर रखा हमारा पैर ही परम्परा का द्योतक है। जो दूसरे पैर प्रगति की लम्बी छलांग का आधार बनाता है।' विज्ञान की भारतीय परम्परा शीर्षक अपने धारा प्रवाह सरल, सरस, किन्तु तार्किक एवं ज्ञानवर्द्धक उद्बोधन में डॉ. जोशी ने कहा कि भारतीयों का यह दायित्व है कि वे विचार करें कि क्या वाकई विज्ञान पश्चिम से आया ? वे समझे कि विज्ञान, दर्शन, साहित्य आदि की दिशाओं में भारत ने क्या प्रगति की। आपने ज्ञान-विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में दिये गये भारतीय योगदान की सिलसिलेवार प्रामाणिक रिपोर्टों के आधार पर चर्चा करने के बाद स्थापित किया कि दर्शन या विज्ञान का कोई भी विषय ऐसा नहीं है जिसकी परम्परा का कोई न कोई हिस्सा भारतीय नहीं हो। उन्होंने कहा कि भारत को जानने के लिए हमें वेद, उपनिषद, कालिदास और संस्कृत को जानना होगा। डॉ. जोशी के उक्त विचारों से मुझमें एक स्फूर्ति का नेतृत्व में बैठे एक वरिष्ठ प्राध्यापक के मन में भारतीयता के पीड़ा है। अनेक इतिहासज्ञों द्वारा भारतीयता को उसके गौरव से प्रति उनके मन की वेदना व्याख्यान में स्पष्ट झलक रही थी। उनका कथन कि जिन अंग्रेजों को 1000 से ज्यादा गिनती नहीं आती थी वे 1000 के बाद फिर 1000 जोड़ते थे (Thousand Thousand) क्या उनकी शक्ल देखते ही हमारे अन्दर वैज्ञानिक प्रतिभा प्रस्फुटित हो गई ? कदापि नहीं। भारत में कृषि, धातु शोधन, रसायन, गणित, खगोल, चिकित्सा आदि क्षेत्रों में विज्ञान की निरंतर परम्परा हजारों साल पुरानी है। इस परम्परा को जानने के लिए संस्कृत का ज्ञान आवश्यक है एवं हर भारतीय को अपने देश की परम्परा एवं संस्कृति का ज्ञान होना आवश्यक है। Jain Education International संचार हुआ। देश के शीर्ष गौरव को बढ़ाने की इतनी वंचित रखने के षडयंत्र के अपने देश एवं उसकी संस्कृति से प्रेम रखने वाले किसी भी भारतीय को झकझोरने में डॉ. जोशी के ये संवाद पर्याप्त हैं। भारतीय संस्कृति श्रमण एवं वैदिक संस्कृतियों का समन्वित रूप है। डॉ. जोशी जहां भारतीय संस्कृति के गौरव की बात कर रहे हैं वहां जैन, बौद्ध एवं वैदिक तीनों संस्कृतियां सम्मिलित हैं। संस्कृत भाषा में निहित ज्ञान को व्यापक अर्थ में समस्त प्राचीन भारतीय भाषाओं में निहित ज्ञान के रूप में लिया जाना चाहिये। इस दृष्टि से कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ के यशस्वी अध्यक्ष श्री देवकुमारसिंह कासलीवाल द्वारा 1987 में देखे अर्हत् वचन, 14 (23), 2002 For Private & Personal Use Only 5 www.jainelibrary.org
SR No.526554
Book TitleArhat Vachan 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2002
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size9 MB
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