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________________ 753 240964 इसके बाद गुणक को पुनः एक स्थान दाहिनी ओर हटाते हैं 753 240964 अब 4 को क्रमानुसार गुणक के 7, 5 गुणनफलों को क्रमश: 7 और 5 के नीचे लिखी 3 के नीचे वाले 4 को मिटाकर उसके स्थान में लिखते हैं। इस प्रकार क्रम से निम्नलिखित संख्याएँ मिलती हैं - (अ) (ब) (स) 2. 753 243764 753 243964 753 243972 यही अन्तिम संख्या 243972 इष्ट गुणनफल है। तत्स्थ - श्रीधराचार्य ने इस विधि का विवरण नहीं दिया है। वे केवल यही लिखते हैं कि 'अन्य (विधि) जिसमें गुण्य स्थिर रहता है तत्स्थ कहलाती हैं।" यह विधि बीजीय है और इसे बीजगणित के तिर्यक् गुणन अथवा वज्राभ्यास के सदृश बतलाया गया है। 3. रूप- खण्ड गुणन - इस विधि के दो भेद हैं 1. गुणन के दो या अधिक ऐसे भाग करते हैं जिनका जोड़ गुणक के तुल्य होता है। इसके अनन्तर गुण्य को उन भागों से अलग-अलग गुणा करके उन गुणनफलों को जोड़ लेते हैं। 2. गुणक को दो या दो से अधिक गुणनखण्डों में विभक्त करते हैं। उसके बाद गुण्य को एक एक करके उन गुणनखंडों से गुणा करते हैं। अन्तिम गुणनफल इष्ट गुणनफल होता - हैं। स्थान विभाग इस विधि के अनुसार गुणा करने में अंक स्थापन में कई क्रमों का उपयोग किया गया है। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं (1) (3) Jain Education International - और 3 से गुणा करते हैं; पहले दो संख्याओं में जोड़ते हैं और अन्तिम को 135 ន ៖ គឺជ 1620 अर्हत् वचन, 14 (23), 2002 (2) 12 1 12 12 3 5 1260 36 1620 For Private & Personal Use Only 135 135 1 2 270 135 1620 19 www.jainelibrary.org
SR No.526554
Book TitleArhat Vachan 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2002
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size9 MB
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