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________________ 3. 28 फरवरी 2002 को बण्डा-सागर में आचार्य श्री विद्यासागर जी, मुनि श्री अभयसागरजी व संघस्थ साधुवृन्दों के सान्निध्य में सिरिभूवलय पर चर्चात्मक व्याख्यान दिया।। 4. 21 अप्रैल 2002 को बड़वानी में आचार्य श्री सन्मतिसागरजी, आचार्य श्री सिद्धान्तसागरजी, बालाचार्य श्री योगीन्द्रसागरजी व गणिनी आर्यिका श्री विजयमती माताजी सभी के ससंघ सान्निध्य में सिरिभूवलय पर चर्चात्मक व्याख्यान दिया। 5. 30 अप्रैल 2002 को मोराजी सागर में आचार्य श्री विरागसागरजी महाराज के ससंघ सान्निध्य में विशाल जनसमुदाय के बीच सिरिभूवलय पर विशेष व्याख्यान दिया। उल्लेखनीय उपलब्धि आचार्य कुमुदेन्दु द्वारा केवल अंकों में रचित सर्वभाषाममय अद्भुत ग्रन्थ सिरिभूवलय लगभग 400 अध्यायों की श्रुति है, किन्तु अभी तक 59 अध्यायों की सामग्री ज्ञात है। बैंगलौर (कर्नाटक) के श्री यल्लप्पा शास्त्री ने इस ग्रंथ की पाण्डुलिपि प्राप्त कर तथा विशिष्ट विधि से बंध खोलकर इसे पढ़ने और लिपिबद्ध करने में सफलता हासिल कर ली थी। आचार्य देशभूषण जी महाराज के सान्निध्य में शास्त्रीजी इसके हिन्दी अनुवाद के कार्य में संलग्न थे कि इनका सन् 1957 में आकस्मिक निधन हो गया। तब तक मात्र 14 अध्यायों का हिन्दी अनुवाद हो पाया था। शास्त्री जी के निधन के बाद आगे कार्य अवरुद्ध हो गया। तब से अनेक प्रयत्न किए गये, किन्तु किसी को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई, क्योंकि प्रत्येक अध्याय को पढ़ने की विधि (बंध) अलग - अलग है। मैंने बंध खोलने के अनेक प्रयत्न किए। कठिन परिश्रम के फलस्वरूप सिरिभूवलय के तीन अध्यायों के बंध खोलने में मुझे सफलता मिल गई है। हमने इनके कुछ अंशों का कन्नड़ एवं देवनागरी पद्यमय लिपिकरण कर लिया है तथा इनमें से समयसार की प्राकृत गाथाएँ, षट्खण्डागम के कुछ गाथासूत्र, तत्वार्थसूत्र के सप्तम अध्याय के कुछ सूत्र और सर्वदोष प्रायश्चित्तविधि के कतिपय मंत्र अन्वेषित कर लिए हैं। अन्य सम्पन्न कार्य इस अवधि में हमने सिरिभूवलय अनुसंधान परियोजनान्तर्गत निम्नांकित कार्य सम्पन्न किए हैं - 1. श्री देवकुमारसिंह जी कासलीवाल के प्रयत्नों से प्राप्त सिरिभूवलय के अंश की माइक्रोफिल्म का तथा उसके प्रिंट कन्नड़ लिपि एवं भाषा में होने के कारण विगत तीन वर्षों से अव्यवस्थित तथा अवाचित थे। सर्वप्रथम हमने इस सामग्री को व्यवस्थित किया, इसकी सूची बनाई और यह जाना कि बीच-बीच के कितने अंशों की सामग्री हमें उपलब्ध 2. मुद्रित, फोटोस्टेट कॉपी आदि सामग्री जो कन्नड़ में थी उसे पूर्ण व्यवस्थित किया। 3. प्रथम छमाही में हमने लगभग 200 साधुसंतों, विद्वानों, संस्थाओं से सघन पत्राचार किया, जिसके फलस्वरूप इस परियोजना को गति देने में हम सफल हुए हैं। 4. माइक्रो फिल्म देखने के लिये पुरातत्व विभाग के डॉ. नरेश पाठक से अनुरोध किया तो उन्होंने सहर्ष प्रोजेक्टर हमें उपलब्ध करा दिया। हमने उसको ठीक करके फिल्म देखने में सफलता पा ली किन्तु रीडिंग के लिये वह उपयुक्त नहीं है क्योंकि गर्म होने से फिल्म जलने का भय है। अर्हत् वचन, 14 (2-3), 2002 121 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526554
Book TitleArhat Vachan 2002 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2002
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size9 MB
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