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________________ सम्पादकीय अर्हत् वचन (कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर सामयिक सन्दर्भ Fourth International Congress of Mathematician, रोम, अप्रैल 1908 में Teachers College, Columbian University, New York (U.S.A.) के गणित के प्राध्यापक Prot. David Eugen Smith द्वारा नवीं शताब्दी के महान दिगम्बर जैनाचार्य महावीर द्वारा रचित गणितसार संग्रह पर शोध पत्र प्रस्तुत करने से पूर्व विश्व समुदाय को भारतीय गणित की इस विशिष्ट शाखा Jaina School of Mathematics की कोई जानकारी नहीं थी। मद्रास के प्रेसीडेन्सी कॉलेज में संस्कृत एवं तुलनात्मक दर्शन के प्राध्यापक एवं गवर्नमेन्ट ओरियंटल मैनुस्क्रिप्ट लाइब्रेरी, मद्रास के क्यूरेटर रायबहादुर प्रो. एम. रंगाचार्य द्वारा गणितसार संग्रह की खोज कर अंग्रेजी अनुवाद एवं टिप्पणियों सहित 1912 में मद्रास गवर्नमेन्ट के माध्यम से प्रकाशन किया गया था। इस प्रकाशन के बाद अन्तर्राष्ट्रीय विद्वान विशेषत: गणित इतिहासज्ञ जैन गणितज्ञों की ओर आकृष्ट हुए एवं विश्व विख्यात गणित इतिहासज्ञ प्रो. विभूति भूषण दत्त (स्वामी विद्यारण्य) ने प्राथमिक सर्वेक्षण के उपरान्त 1929 में Bulletin of Calcutta Mathematical Society में Jaina School of Mathematics शीर्षक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आलेख प्रकाशित किया। इसके बाद अनेक विद्वानों ने शोधपूर्ण आलेखों का अनवरत प्रकाशन किया जिससे "जैन गणितज्ञ वर्ग भारतीय गणित की एक महत्त्वपूर्ण धारा के रूप में स्थापित हुआ। वर्तमान में भी इस क्षेत्र में पर्याप्त अनुसंधान कार्य गतिमान है। जैनाचार्यों के गणितीय अवदान अथवा प्राचीन जैन ग्रन्थों में उपलब्ध गणितीय सिद्धान्तों/विवेचनों/प्रयोगों का विस्तृत अध्ययन करने वाले विद्वानों में से कतिपय प्रमुख नाम निम्नवत हैंविदेश 1. Prof. A.J. Volodarsky, Moscow (Russia) 2. Prof. David Eugen Smith, New York (U.S.A.) 3. Dr. Takao Hayashi, Kyoto (Japan) भारत Dr. AK. Bag (New Delhi), Prof. A.N. Singh (Lucknow), Dr. Anupam Jain (Indore), Prof. B.B. Dutt (Calcutta), Prof. B.S. Jain (Delhi), Mr. Dipak Jadhav (Barwani), Dr. H.R. Kapadia (Baroda), Prof. K.S. Shukla (Lucknow), Prof. L.C. Jain (Jabalpur), Dr. M.B. Lal Agrawal (Agra), Mrs. Mamta Agrawal (Meerut), Dr. N.C. Shastri (Arrah), Dr. N.L. Jain (Rewa), Prof. P.M. Agrawal (Ujjain), Prof. Padmavathamma (Mysore), Dr. Parmeshvar Jha (Supaul), Prof. R.S. Lal (Shiwan), Prof. S.C. Agrawal (Meerut), Prof. S.R. Sharma (Aligarh), Prof. S.R. Sinha (Allahabad), Dr. S.S. Lishk (Patiala), Swami Satya Prakash (Allahabad), Dr. Sabal Singh (Agra), Prof. T.A. Saraswati (Dhanbad), Dr. Usha Asthana (Lucknow) आदि। इन विद्वानों के कृतित्व पर व्यापक सर्वेक्षणात्मक आलेख हम 14(2), अप्रैल-जून 2002 अंक में प्रकाशित कर रहे हैं। साथ ही कतिपय प्रकाशित महत्त्वपूर्ण कृतियों एवं शोध प्रबन्धों की समीक्षा भी देंगे। इन विद्वानों के कतित्व को समाहित करने वाली एक सुसम्पादित सर्वांगपूर्ण कति की आज नितान्त आवश्यकता है। हमें विश्वास है कि प्रबुद्ध श्रेष्ठि अथवा सक्रिय शोध संस्थान इस आवश्यकता की पूर्ति हेतु आगे आयेंगे। सम्पूर्ण जैन साहित्य के विषयानुसार विभाजन के क्रम में इसे आचार्य समन्तभद्र ने चार अनुयोगों में विभाजित किया था। जिसके अन्तर्गत - (1) प्रथमानुयोग, (2) करणानुयोग, (3) चरणानुयोग, (4) अर्हत् वचन, 14 (1), 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526553
Book TitleArhat Vachan 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2002
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size7 MB
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