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भगवान महावीर के 2600 वें जन्म कल्याणक महोत्सव के उपलक्ष्य में केन्द्र, राज्य सरकारें तथा जैन संगठनों द्वारा विभिन्न राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे हैं। इसी सन्दर्भ में विनम्र प्रस्ताव है कि दिल्ली एवं सभी राज्यों के शासकीय स्थापत्य एवं कला संग्रहालयों में जैन स्थापत्य एवं कला वीथिकाओं (गैलरी) की स्थापना की जाना चाहिये, ताकि जैन कलाकृतियों के अध्ययन एवं मूल्यांकन में सुविधा प्राप्त हो सके। जैन शिल्प एवं कलाकृतियों की निजी विशिष्टता एवं महत्व है। लगभग 5000 वर्ष ईसा पूर्व की हड़प्पा सभ्यता से आरम्भ होकर अर्वाचीन काल निरन्तर जैन स्थापत्य कला भारतीय संस्कृति को समृद्ध करती रही है, परन्तु दुर्भाग्यवश यह समुचित मूल्यांकन एवं प्रशस्ति से वंचित रही है। यह कैसा विडम्बना है कि विश्वविख्यात ग्यारसपुर की यक्षी (सुरसुंदरी) के प्रदर्शन में इसका उल्लेख जैन कलाकृति के रूप में नहीं किया जाता और ऐसी ही प्रवंचना मूर्ति शिल्प की प्रशंसनीय कलाकृति जैन मन्दिर पल्लू की सरस्वती, राजकीय संग्रहालय दिल्ली में प्रदर्शित, को झेलना पड़ रही है। यहाँ भी जैन शब्द आश्चर्यजनक रूप से गायब है। यही स्थिति यहाँ प्रदर्शित अनेक जैन कलाकृतियों की है अतः यह अति आवश्यक है कि जैन कलाकृतियों की सही पहचान की जाये और इसका प्रथम चरण है पृथक जैन वीथिका की स्थापना । दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में भगवान बुद्ध के 2500 वें निर्वाण महोत्सव पर प्रथम बुद्ध वीथिका बनाई जा चुकी है। परन्तु भगवान महावीर के 2500 वै निर्वाण महोत्सव पर बौद्ध वीथिका की तरह जैन वीथिका की स्थापना को आवश्यक नहीं समझा गया। इस यक्ष प्रश्न का उत्तर किसके पास है ? आशा है कि जैन समाज अब जागरूक होकर कदम दर कदम उपेक्षा का शिकार बनने
राजकीय स्थापत्य एवं कला संग्रहालयों में
पृथक जैन कला वीथिका (गैलरी) की स्थापना
के तिरस्कार का परिमार्जन करने के लिये समुचित कार्यवाही करेगा।
'वर्धमान' पुस्तक का वितरण रोका गया
एक पुस्तक 'वर्धमान का प्रकाशन भगवान महावीर के 2600 वें जन्मकल्याणक महोत्सव
के उपलक्ष्य में टाइम्स ऑफ इण्डिया प्रकाशन द्वारा किया गया था। मगर बाद में उमरे तथ्यों से पता चला कि उसमें दिगम्बर जैन मान्यताओं के विरूद्ध कुछ आपत्तिजनक बातें तथा अनेक चित्र प्रकाशित हो गये इस पुस्तक की प्रस्तावना महासमिति की कार्याध्यक्ष श्रीमती इन्दु जैन ने लिखी थी। उन्होंने स्पष्ट किया है कि उन्होंने समय के अभाव के कारण पुस्तक को बगैर पढ़े ही प्रस्तावना छपने के लिये दे दी थी। उन्हें इसका बहुत खेद है। उनका कहना है कि यह तथ्य सामने आने पर तुरंत ही इस पुस्तक का वितरण रोक दिया गया और आगे उसका कोई और संस्करण प्रकाशित न करने का निर्णय लिया गया। उन्होंने कहा कि उन्हें इस बात का बहुत पश्चाताप है कि समाज के अनेक भाई बहनों और संस्थाओं की भावना को इस पुस्तक के प्रकाशन से ठेस पहुँची। उन्होंने भरोसा दिलाया है कि भविष्य में जो भी पुस्तक छपेगी, उस पर पूरा पूरा ध्यान दिया जायगे और सभी की भावनाओं का पूरा सम्मान किया जायेगा।
■ कैलाशचन्द जैन, मंत्री श्री दिग जैन मानस्तम्भ समिति, बेलगछिया, कोलकाता
रीवा विश्वविद्यालय द्वारा अर्हत् वचन को मान्यता
अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रींवा ने विज्ञप्ति क्रमांक प्रा.स./ अ.म. / 2001/1005, दिनांक 21.12.2001 द्वारा जैन समाज की निम्नलिखित बहुचर्चित एवं सर्वोपयोगी 4 पत्रिकाओं को शोध पत्रिका की मान्यता प्रदान की है अर्हत् वचन - इन्दौर, प्राकृत विद्या कुन्दकुन्द भारती, दिल्ली, शोधादर्श - लखनऊ एवं वीतराग वाणी- टीकमगढ़।
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ज्ञातव्य कि अन्य कई विश्वविद्यालयों द्वारा पूर्व से ही अर्हत् वचन को शोध पत्रिका का मान्यता अघोषित रूप में प्राप्त है।
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अर्हत् वचन, 14 (1) 2002
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