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अनुरोध है कि उक्त अनुशंसित परियोजनाओं की स्वीकृति शीघ्र प्रेषित करें, जिससे वित्तीय वर्ष 2002 - 3 में कार्य प्रारम्भ हो सके।
सिरि भूवलय परियोजना कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ में 1.4.2001 से गतिमान है। इसका 1 वर्षीय प्रगति विवरण अर्हत् वचन 14 (2) में प्रकाशित किया जा रहा है। स्थायी महत्व की इस महत्वाकांक्षी परियोजना में तन, मन, धन से सहयोग हेतु हम सभी का आह्वान करते हैं। मुख्यत: कन्नड़ भाषा एवं लिपि से सुपरिचितं एवं उसके वाचन, अनुवाद आदि कार्यों में सिद्धहस्त विद्वान् कृपया शीघ्र सम्पर्क करें। पांडुलिपि के 59 वें अध्याय की डिकोडिंग का कार्य पूर्णता की ओर है, इससे प्राप्त पाठ की शुद्धता के परीक्षण, विश्लेषण एवं उनमें गर्भित विषयवस्तु के प्रस्तुतीकरण में हमें उनकी सेवाओं की अपेक्षा है। सम्प्रति युवा विद्वान डॉ. महेन्द्रकुमार जैन 'मनुज' इस परियोजना का कार्य देख रहे हैं। हमारे पाठकगण इस ग्रन्थ के बारे में पूर्व में सम्पादित कार्य एवं इससे सम्बद्ध समस्त सूचनाओं, इस कार्य में सहयोग करने के इच्छुक सक्षम विद्वानों के नाम, पते हम तक पहुँचाकर अपना सहयोग दे सकते हैं। इस कार्य में सहयोग करने वाले सभी विद्वानों को सभी आधारभूत सुविधाएँ एवं मानदेय आदि उपलब्ध कराने का हमारा प्रयास है।
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31.3.2002
देवकुमारसिंह कासलीवाल
मुखपृष्ठ चित्र परिचय ग्यारहवीं शताब्दी (महमूद गजनवी के 1025 से प्रारम्भ विध्वंस) से जैन मन्दिरों में आगमों की सुरक्षा हेतु सरस्वती भण्डारों के निर्माण का प्रचार बढ़ा और प्रेरणा स्वरूप सरस्वती की मूर्तियों का निर्माण भी बहतायत में हआ। उस समय 'ज्ञान की रक्षा की देवी के रूप में सरस्वती की मान्यता बढ़ी। पश्चिमी भारत व मध्यभारत में बहुत ही कलात्मक मूर्तियों का निर्माण हुआ। ऐसी दो मूर्तियाँ लॉस एंजिल्स काउंटी म्यूजियम ऑफ आर्ट में भी प्रदर्शित हैं।
जैन परम्परा में श्रुत देवी के रूप में सरस्वती का वन्दन 6 ठी शताब्दी से ही मूर्तिरूप में मिलता है। 11 वीं शताब्दी के पहले सरस्वती की मूर्तियाँ बैठी हुई तथा दो हाथों वाली होती थी, किन्तु 11 वीं शताब्दी से वे खड़ी व 4 हाथों वाली बनने लगीं। ऐसी ही एक मूर्ति 12वीं शताब्दी की राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली में सुरक्षित है, उसी का चित्र मुखपृष्ठ पर अंकित है।
- सूरजमल बोबरा
अर्हत् वचन, 14 (1), 2002
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