________________
महत्वाकांक्षायें संस्थान को राजनीति का अखाड़ा बना देती हैं। ऐसे व्यक्ति थोड़ा सा लाभ देकर भी संस्थान का इतना नुक्सान कर देते हैं जिसकी भरपाई असंभव हो जाती है। ऐसा पोषण किस काम का जिसकी चरम परिणति प्राणों का विसर्जन हो। जैन समाज के अनेक प्रतिष्ठित शोध संस्थानों का विगत 50 वर्षों का इतिहास इस तथ्य का साक्षी है। हम कामना करते हैं कि कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ सहित देश के सभी जैन संस्थान ऐसे तथाकथित शुभचिन्तकों की कुदृष्टि से बचे रहें। और जैन विधाओं के अध्ययन / अनुसंधान की क्षीण होती परम्परा लुप्त होने से बच जाये । स्वप्न देखना या दिखाना बुरा नहीं किन्तु वर्तमान की कीमत पर, शायद श्रेयस्कर नहीं |
कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ का पुस्तकालय आज शोधार्थियों के आकर्षण का केन्द्र बनता जा रहा है। अब तक इसमें लगभग 9000 से अधिक पुस्तकों, 1100 से अधिक पांडुलिपियों ( सहयोगी अमर ग्रंथालय में संकलित पांडुलिपियों सहित) एवं 500 से अधिक प्रकार की जैन एवं जैनेतर पत्र-पत्रिकाओं का संकलन किया जा चुका है। आज भी 300 जैन पत्र-पत्रिकायें नियमित रूप से आ रही हैं। पुस्तकालय को वर्तमान रूप में लाने के लिये हमें विगत वर्षों में श्री सनतकुमार जैन, श्रीमती जाग्रति बक्षी एवं श्रीमती सुरेखा मिश्रा, B.Lib. का भरपूर सहयोग मिला। सम्प्रति श्रीमती मिश्रा एवं कु. संध्या जैन कार्यरत हैं। पुस्तकालय विज्ञान के युवा विद्वान डॉ. संजीव सराफ M.Lib., D.Lib. ने अनथक श्रम किया है। उन्होंने दाशमिक पद्धत्ति से इस पुस्तकालय का वर्गीकरण कराया है।
पुस्तकालय की स्थापना काकासाहब के व्यक्तिगत संग्रह में उपलब्ध जैन संस्कृति संरक्षक संघ - शोलापुर एवं भारतीय ज्ञानपीठ के प्रकाशनों से हुई थी। तदुपरान्त डॉ. वृद्धिचन्द्र जैन के परिवार, डॉ. एन. पी. जैन ( पूर्व राजदूत), श्री जयसेन जैन (सम्पादक- सन्मति वाणी), श्री रमेश कासलीवाल (सम्पादक - वीर निकलंक), डॉ. एम. के. जैन, ब्र. भाई अनिलजी, ब्र. भाई सुनीलजी ने अपने संग्रह की शताधिक पुस्तकें प्रदान की । दि. जैन उदासीन आश्रम के संग्रह एवं आदरणीय बाबूसाहब श्री अजितकुमारसिंह कासलीवालजी से हमें बहुत बड़ी मात्रा में मूल्यवान ग्रंथ प्राप्त हुए। पूज्य मुनि श्री अभयसागरजी के आशीर्वाद सहित अनेक ग्रंथ, आचार्य श्री विद्यासागरजी के संघ से भी अनेक ग्रंथ मिलते रहते हैं। मैंने स्वयं भी शताधिक ग्रंथ विभिन्न चरणों में पुस्तकालय को प्रदान किये। आप सबके सहयोग एवं विश्वास के लिये हम कृतज्ञ हैं। यह हमारा कर्तव्य है कि इस विश्वास को अक्षुण्ण बनाये रखें। देश के कोने कोने से अर्हत् वचन में समीक्षार्थ एवं पुस्तकालय हेतु भेंट में प्राप्त होने वाले ग्रंथ भी इसका गौरव बढ़ाते हैं। भविष्य में भी सभी पाठकों को सभी ग्रंथ उपलब्ध करना हमारा दायित्व है।
अर्हत् वचन का प्रस्तुत अंक हमने भगवान महावीर 2600 वाँ जन्म जयन्ती वर्ष विशेषांक के रूप में प्रकाशित किया है। फलत: भगवान महावीर से सम्बद्ध 4 आलेखों को विशेष रूप से प्रकाशित किया है। आगे भी भगवान महावीर विषयक सामग्री प्राथमिकता से प्रकाशित करेंगे। पत्रिका की पारम्परिक रीति-नीति के अनुरूप अन्य आलेख भी संयोजित हैं। अगले अंक में प्रकाश्य कुछ आलेखों को भी सूचीबद्ध किया है।
अन्त में मैं दिगम्बर जैन उदासीन आश्रम ट्रस्ट के सभी पदाधिकारियों विशेषतः श्री देवकुमारसिंह कासलीवाल एवं श्री अजितकुमारसिंह कासलीवाल के प्रति आभार ज्ञापित करता हूँ के संरक्षण के कारण ही पत्रिका का 50 वाँ अंक हम प्रस्तुत कर पा रहे हैं। इन 50 अंकों के सम्पादन के मध्य हुई त्रुटियों के लिये क्षमायाचना सहित .
डॉ. अनुपम जैन
अर्हत् वचन, अप्रैल 2001
6
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org