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सम्पादकीय
अर्हत वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर
सामयिक सन्दर्भ
आचार्य कुन्दकुन्द द्विसहस्राब्दी महोत्सव वर्ष 1987-88 में प्रारम्भ अर्हत् वचन का 50वाँ अंक (वर्ष-13 अंक-2) भगवान महावीर जन्म जयंती महोत्सव वर्ष (2001-2002 में आपके हाथों में प्रस्तुत है। जैन विज्ञान एवं जैन इतिहास/पुरातत्त्व को केन्द्र बिन्दु बनाकर प्रस्तुत की गई इस शोध पत्रिका ने इन 50 अंकों में 5000 पृष्ठों की बहुमूल्य सामग्री अपने सुधी पाठकों को प्रस्तुत की। इस विकास यात्रा में हम कितना आगे बढ़ पाये यह तो हम नहीं कह सकते किन्तु हमें देश के मूर्धन्य विद्वानों, शोधकों एवं जिज्ञासु पाठकों का पर्याप्त स्नेह मिला है। वस्तुत: पत्रिका ने जो भी ख्याति अर्जित की है उसका सम्पूर्ण श्रेय हमारे लेखकों तथा सम्पादक मण्डल के सदस्यों को है एवं जो न्यूनतायें रह गई उसका कारण मेरी अल्पज्ञता एवं प्रमाद है। फलत: मैं इसका सम्पूर्ण दायित्व स्वीकार करता हूँ एवं भविष्य में अपेक्षित सुधार का विश्वास दिलाता हूँ। गणित का विद्यार्थी होने के कारण भाषा एवं व्याकरण संबंधी अनेक दोष रह जाते हैं तथा प्रूफ संशोधन में भी दोष रह जाते हैं जिनका परिष्कार किया जाना जरूरी है। इन 50 अंकों में प्रकाशित लेखों, टिप्पणियों, आख्याओं आदि की समेकित सूची शीघ्र प्रकाशित की जा रही है जो हमारे पाठकों हेतु तो उपयोगी होगी किन्तु विगत वर्षों में प्रकाशित सामग्री की समद्धता को भी व्यक्त करेगी।
___ गत अंक में प्रकाशित मेरे सम्पादकीय तथा गत संगोष्ठी (3 - 5 मार्च 2001) में आयोजित एक सत्र पर व्यापक प्रतिकिया हुई। अनेक विद्वानों ने विस्तृत एवं कुछ ने संक्षिप्त प्रतिक्रियायें भेजीं। यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ के विषय में चिन्ता की कोई बात नहीं है। विद्वानों की चिन्तायें उनके स्नेह का प्रतीक है। कन्दकन्द ज्ञानपीठ उसके यशस्वी अध्यक्ष काकासाहब श्री देवकुमारसिंहजी कासलीवाल का स्वप्न है जिसे साकार करने में आप सब प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से सहभागी बने हैं। उनकी कल्पनाशीलता, स्थिरबुद्धि, दूरदृष्टि, समर्पण के भाव, सुविचारित योजनाबद्ध क्रियान्वयन एवं विश्वास का प्रतिफल है यह शोध संस्थान। यह मेरा सौभाग्य रहा कि में उनके मिशन में अपना यत्किंचित योगदान कर सका एवं जब तक उनका विश्वास बना रहेगा मैं अपना न्यूनाधिक योगदान देता रहूँगा। किसी शोध पत्रिका के 50 अंक नियमित निकलना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। विगत 13 वर्षों में ज्ञानपीठ के विविध प्रकल्पों की स्थापना एवं संचालन में 1,00,00,000/- (एक करोड़) रूपये से अधिक की राशि का निवेश/व्यय किया जा चुका है फलत: संस्थान ने राष्ट्रीय/अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की है। यह इस संस्था के नेतृत्व के लिये अत्यन्त गौरव एवं संतोष का विषय है।
नई परिस्थिति में उतने कठोर श्रम की अपेक्षा नहीं जितनी प्रारम्भिक वर्षों में थी। क्योंकि प्रारम्भ के वर्षों में अधिकांश वर्गों में संस्था के प्रति उपेक्षा का भाव रहता है फलत: संचालक/संचालकों को केवल कठोर श्रम करना होता है जिससे उनकी संस्था की पहचान बन सके किन्तु विकसित हो जाने या पहचान बन जाने के बाद गैर अकादमिक व्यक्ति वर्चस्व बढाने लगते हैं अथवा अकादमिक व्यक्ति 'चलती गाड़ी में बैठने की नीति के तहत अधिकार जमाने की फिराक में जुट जाते हैं। ज्ञानपीठ सहित समस्त शोध संस्थानों के शीर्ष नेतृत्व को ऐसे शुभचिन्तकों (?) से अपने संस्थानों को बचाना होगा वरना हींग की एक डली लहलहाते बट वृक्ष को भी कुछ समय में धराशायी कर देती है। व्यक्ति या व्यक्तियों की सुषुप्त/अतृप्त अर्हत् वचन, अप्रैल 2001
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