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________________ अर्हत् वच कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर, वर्ष 13, अंक 2, अप्रैल 2001, 39-44 6 नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती और द्रव्यसंग्रहकार मुनि नेमिचन्द्र की भिन्नता डॉ. जयकुमार जैन* जैन साहित्य के विशाल भण्डार के अनुशीलन से पता चलता है कि भारतवर्ष में जैन धर्म और वाङ्मय के सेवक नेमिचन्द्र नामधारी अनेक विद्वान् हुए हैं - 1. ईसवी सन् की छठी शताब्दी में एक नेमिचन्द्र नामक विद्वान् हुए । इनका सम्बन्ध नन्दिसंघीय बलात्करगण से था। इनके गुरु का नाम प्रभाचन्द्र था तथा भानुचन्द्र इनके शिष्य थे। इनका समय शक सम्वत् 478 से 487 तदनुसार ईस्वी सन् 556 से 565 माना गया है । 2. ईसवी सन् की दसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में एक अन्य नेमिचन्द्र नामक विद्वान् हुए। इनका सम्बन्ध नन्दिसंघ के देशीय गण से था तथा सिद्धान्तचक्रवर्ती इनकी उपाधि थी। ये अभयनन्दि के दीक्षा शिष्य तथा वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि के गुरु भाई माने गये हैं। विविध प्रमाणों के आधार पर इनका समय ईसवी सन् 981 माना गया है। गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार और त्रिलोकसार इनकी प्रसिद्ध कृतियां हैं। 3. ईसवी सन् की ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुए एक अन्य नेमिचन्द्र नामक विद्वान् का सम्बन्ध भी नन्दिसंघ के देशीय गण से था तथा सिद्धान्तिदेव या सैद्धान्तिकदेव इनकी उपाधि थी । श्रावकाचार के रचयिता वसुनन्दि इनके शिष्य थे। इन्हें धारा नरेश भोज के समकालीन माना गया है। राजा भोज का समय इतिहासज्ञों की दृष्टि में वि.सं. 1075-1125, तदनुसार ईसवी सन् 1018 1068 है। द्रव्यसंग्रह और वृहद्रव्यसंग्रह इनकी विख्यात रचनायें हैं। 4 ईसवी सन् की तेरहवीं शताब्दी में एक अन्य नेमिचन्द्र नामक विद्वान् हुए । इनके समय के संस्कृत एवं कन्नड़ के कवियों में इनका महत्वपूर्ण स्थान रहा है। 'अर्धनेमिपुराण' इनकी प्रसिद्ध रचना है। यह संस्कृत मिश्रित कन्नड भाषा में लिखी गई है तथा चम्पक शार्दूल वृत्त में है। अनुप्रास छटा के सन्दर्भ में कन्नड का कोई भी कवि इनकी समानता नहीं कर सकता है। 5. ईसवी सन् की पन्द्रहवीं शताब्दी में एक अन्य नेमिचन्द्र नामक विद्वान् हुए । इन्होंने रविव्रत कथा एवं अनन्तव्रत कथा आदि ग्रन्थों का प्रणयन किया। अपभ्रंश के कवियों में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। 6. ईसवी सन् की सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में एक अन्य नेमिचन्द्र नामक विद्वान् हुए हैं। इनका सम्बन्ध नन्दिसंघ के बलात्कार गण के सरस्वती गच्छ से रहा है। भट्टारक ज्ञानभूषण इनके गुरु थे, जिनका समय वि.सं. 1555 (1498 ई.) मान्य है । इन्होंने केशव वर्णी कृत कन्नड टीका के आधार पर गोम्मटसार की जीवप्रबोधिनी नाम संस्कृत टीका लिखी है। उपर्युक्त छह विद्वानों में प्रथम नेमिचन्द्र का कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। अतः वे हमारे लिये प्रकृत में विचारणीय नहीं हैं। द्वितीय नेमिचन्द्र का जैन सिद्धान्त के विकास Jain Education Ren रीडर एवं अध्यक्ष संस्कृत विभाग, सनातन धर्म स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) । www.jainelibrary.org
SR No.526550
Book TitleArhat Vachan 2001 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2001
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size14 MB
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