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________________ एवं प्रचार-प्रसार में महनीय योगदान है। जैन श्रमणों एवं विद्वानों में धवला और जयधवला को विद्वत्ता का निकष स्वीकार कर लिया गया था। किन्तु पठन-पाठन में इनकी दुष्करता आड़े आ रही थी। तब इनके सार भाग को एकत्र कर कुछ अन्य ग्रन्थों के प्रणयन की अपेक्षा थी। इस कार्य को नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने गोम्मटसार आदि ग्रन्थों की रचना के द्वारा पूरा किया। सिद्धान्तचक्रवर्ती इनकी उपाधि है। गोम्मटसार कर्मकाण्ड में उन्होंने लिखा जह चक्केण य चक्की छक्खंडं साहियं अविग्घेण। तह मइचक्केण मया छक्खंड साहियं सम्म। अर्थात जिस प्रकार चक्रवर्ती अपने चक्ररत्न से छह खण्डों को निर्विघ्न अपने अधीन कर लेता है, उसी प्रकार मैंने बुद्धि रूपी चक्र से षट्खण्डागम को अच्छी तरह से अपने अधीन कर लिया है। सिद्धान्त ग्रन्थों के अधीती श्रमणों को सिद्धान्तचक्रवर्ती की उपाधि प्राचीन काल से ही दी जाती रही है। श्री वीरसेन स्वामी ने जयधवला की प्रशस्ति में स्पष्टतया उल्लेख किया है कि भरत चक्रवर्ती की आज्ञा के समान जिनकी वाणी षट्खण्डागम में अस्खलित रहती है। कदाचित् उनके समय से ही सिद्धान्तज्ञ को सिद्धान्तचक्रवर्ती कहा जाने लगा हो। अत: प्रकृत नेमिचन्द्र ने धवला - जयधवला का मंथन कर क्रमश: गोम्मटसार और लब्धिसार ग्रन्थों की रचना की तथा सिद्धान्त ग्रन्थों के अगाध पाण्डित्य को प्रकट किया। अत: उनका सिद्धान्तचक्रवर्ती पद सर्वथा समीचीन तथा सार्थक ही है। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने अपने ग्रन्थों में अपनी गुरु परम्परा का स्वयं उल्लेख किया है, अत: वह प्राय: निर्विवाद है। गोम्मटसार कर्मकाण्ड में उन्होंने लिखा है - जस्स य पायपसायेण - णंतसंसारजलहिमत्तिण्णो। वीरिंदणंदिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुरुं॥ अर्थात् जिनके चरण प्रसाद से वीरेन्द्रनन्दि (वीरनन्दि) और इन्द्रनन्दि का वत्स अनन्त संसार रूपी समुद्र से पार हो गया, उन अभयनन्दि गुरु को मैं नमस्कार करता हूँ। एक अन्य स्थल पर प्रत्यय प्रकरण के प्रारम्भ में उन्होंने लिखा है - णमिऊण अभयणंदिं सुदसायरपारगिंदणंदिगुरूं। वरवीरणंदिणाहं पयडीणं पच्चयं वोच्छं। अर्थात मैं अभयनन्दि को श्रृत समुद्र के पारगामी इन्द्रनन्दि गुरु को और वीरनन्दि को नमस्कार करके प्रकृतियों के प्रत्यय कारण को कहूँगा। त्रिलोकसार ग्रन्थ में अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख करते हुए नेमिचन्द्र मुनि ने लिखा है - इदि णेमिचंदमणिणा अप्पसदेणभयणंदिवच्छण। रइयो तिलोयसारो खमंतु तं बहुसुदाइरिया।। अर्थात् अभयनन्दि के वत्स अल्पश्रुत नेमिचन्द्र मुनि ने इस प्रकार त्रिलोकसार नामक ग्रन्थ की रचना की। बहुश्रुत आचार्य उसे क्षमा करें। इसी प्रकार लब्धिसार ग्रन्थ में भी दर्शनलब्धि और चारित्रलब्धि के कथन पूरा होने 40 अर्हत् वचन, अप्रैल 2001 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.526550
Book TitleArhat Vachan 2001 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2001
Total Pages120
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size14 MB
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