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समझी जाने वाली सम्पूर्ण एनजाइम वर्गणा - निगोदें मिलकर अनंतानंत हो जाते हैं। जैनाचार्यों ने इन्हें हजारों वर्ष पूर्व अपने सूक्ष्म दर्शन से ना केवल जाना था बल्कि उन अदृष्ट वर्गणाओं को भी जाना था जिन्हें वे मनोवर्गणा तथा कार्माण वर्गणा नाम दे चुके हैं।
यही नहीं, प्रति श्वांस शरीर के अन्दर बैठी अनगिनत जलकायिक वर्गणाएँ (जल परमाणु) वायुकायिक वर्गणाओं में बदलकर (मरण - जन्म से) बाहर फिंक जाती हैं जिन्हें हम सर्दियों में विशेषकर नाक, मुँह से भाप का धुआं बनकर उड़ते देखते हैं। इन सभी के पास 'स्पर्शबोध' है अत: ये सब एकेन्द्रिय जीव' हैं जिनका जन्म - मरण लगातार चालू है। उन्हें अनदेखा करते हुए हम सारा जीवन गुजार देते हैं। हमारा शरीर इन सबों का जीवनाधार रहता है किन्तु हम देखकर भी इन्हें जानते नहीं। यही हमारे नखों और केशों को जीवित रखता है। ये भी अपनी- अपनी अलग - अलग आयु जीते हैं। इसी कारण हमारा शरीर 'साधारण' भी पुकारा जाता है।
___ इनका स्पर्श बोध ही इन्हें संगठित रखता है और परस्पर का आकर्षण रखता है। आधुनिक विज्ञान सूक्ष्म ठोस कणों के बीच स्थित आकर्षण को Attractive forces कहकर अध्ययन करता है जो वर्गणाओं के बीच वांडरवाल (Keesam और London) शक्तियों के नाम से उन्हें परे फेंकता है। विषम होने पर ही वह आकर्षण दृष्टिगत होता है यथा मैदा या दाल का बारीक आटा बर्तन में 'फलकता' है और बर्तन की दीवारों से जा चिपकता है। जबकि मोटा आटा ऐसा नहीं करता। द्रवों में यही आकर्षण Cohessive और Adhesive शक्तियाँ दर्शाता है। कोहेसिव शक्ति उसे संकुचित करके एक संकीर्ण/संकुचित सतह देती है और द्रव बिखरते नहीं हैं। कम से कम सतह से कम वाष्पीकरण होता रहता है। किन्तु जैन विज्ञान द्रव (जलकायिक), ठोस (पृथ्वीकायिक), भाप (वायुकायिक), ऊष्मा (अग्निकायिक) को इनके स्पर्शबोध के कारण एकेन्द्रिय जीवों की श्रेणी में स्वीकारता है। क्रिस्टेलोग्राफी ने भी स्पर्शबोध को स्वीकारते हुए रबों की निर्माण प्रक्रिया को पहचानने में उपयोग किया है क्योंकि एक ही घोल में से रबे बनाते पदार्थ अपने - अपने 'आधार रबों' पर जाकर एकरूपवर्धना (Plane of Crystalisation) दर्शाते हैं। इसी कारण खनिजों में एकत्रीकरण मिलता है। यह भौतिक परिवर्तन तथा रासायनिक संयोग मात्र ही नहीं, एक पर्याय से 'मृत्यु' और दूसरी में 'जन्म' है। आश्चर्य है कि केवली भगवानों की दृष्टि में यह सब इतनी सूक्ष्मता सहित कैसे उतरा ! हमारे जीवन की प्रथम भ्रूण कोशिका से यही घटनायें निरन्तर घट रही हैं जिनमें उपस्थित वातावरण की वर्गणाएँ उनके जन्ममरण से हमें निरन्तर आहार, निर्माण, शक्ति जुटा रही हैं। जीवन की प्रथम श्वांस से यही सब निरन्तर घट रहा है। लगभग प्रति सेकंड एक धड़कन (प्रति श्वांस 9 धड़कनें) यही घट रहा है जिसे हम देखते हैं पर बेपरवाही शांति
से।
वायु का प्रत्येक परमाणु, उसमें स्थित ओषजन, नोषजन, उदजन और अन्य अनेकों सब इसी प्रकृति में हमारे आसपास अपनी आतुरता को शेषकर (Quench) तृप्त होकर अपने समप्रकृति अणुओं से जुड़कर, परमाणु बना, स्थिरता को प्राप्त होते हैं। पृथ्वी, जल, वायु, अग्निकायिक "स्थावरों' का बना ये संसार समूचा जाना पहचाना सा होने के बाद भी हमनें 'जड़' समझकर इसकी उपेक्षा की है। इन्हीं के उन्नत स्वरूप वनस्पतिकायिक तथा एल्गी/काई आदि जीव भी हैं। उन्हें भी उपेक्षा दी है। हमारे बीच मानव इतना स्वार्थी हो उठा कि हमारे सह जीव चलते - फिरते, बोलते, चहकते, तिरते भी उन्हें 'जड़' लगने लगे हैं और उन्हें वह मार - मार कर उनका कलेवर खाने लग गया है। जो शिशुवत
अर्हत् वचन, अक्टूबर 2000
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