SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की स्वस्थता नितान्त अपेक्षित है। स्वस्थ शरीर ही समस्त भोगोपभोग अथवा मन:शांतिकारक या आत्मअभ्युन्नतिकारक देव पूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप, त्याग, दान, आदि धार्मिक क्रियाएँ करने में समर्थ होता है। विकारग्रस्त या अस्वस्थ शरीर न तो भौतिक विषयों का उपभोग कर सकता है और न ही धर्म की साधना। अत: आरोग्य प्रदान करने व विकारग्रस्त शरीर की विकाराभिनिवृत्ति करने में एकमात्र आयुर्वेद ही समर्थ है। आयुर्वेद द्वारा प्रतिपादित रोग - निदान और चिकित्सा संबंधी सिद्धान्तों में रोगों के अन्तरिम प्राणबल के अन्वेषण पर बल दिया गया है। रोग के मूल कारण को मिथ्या आहार - विहार जनित बतलाकर जैनाचार्यों ने, विद्वानों ने जिस प्रकार संयम द्वारा आहारगत पथ्य के नियम बनाये हैं वे अत्यंत उत्कृष्ट एवं व्यावहारिक हैं। 19 जैन दर्शन के अनुसार जीव अनादि व अनन्त है। अत: जैनाचार्यों का मत है कि जीव के जन्म से लेकर मरण पर्यन्त तक ही नहीं ; अपितु असंख्य भव - भवान्तरों तक उसके हिताहित के विवेचन के उत्तरदायित्व का भार और अंत में मुक्ति तक पहुँचा देने का उत्तरदायित्व आयुर्वेद का है और इसी विचार, दर्शन के कारण जैनाचार्यों ने आयुर्वेद जैसे विषय पर साहित्य सृजन किया जो भारतीय आयुर्वेद को उनकी महत्वपूर्ण देन है। . श्वेताम्बर जैनाचार्यों द्वारा वैद्यक ग्रंथ रचना का एक महत्वपूर्ण एवं प्रमुख कारण यह है कि जैन धर्म के नियमों के अनुसार यति - मुनियों और आर्यिकाओं के रूग्ण होने पर वे श्रावक-श्राविका से अपनी चिकित्सा नहीं करा सकते थे। अतएव आवश्यक था कि वे अपनी चिकित्सा स्वयं करें। इसके लिये प्रत्येक यति - मुनि को चिकित्सा विषयक ज्ञान प्राप्त करना जरूरी था। और इसी आवश्यकता ने श्वे. जैनाचार्यों को आयुर्वेद विषयक ग्रंथों की रचना करने के लिये प्रेरित किया। दिगम्बर परम्परा में संघस्थ ब्रह्मचारी / ब्रह्मचारिणी भाई - बहन आहार के समय शुद्ध औषधियाँ प्रदान करते थे। अत: उनको भी आयुर्वेद का ज्ञान जरूरी था। फलत; संघ में आयुर्वेद के ग्रंथों का सृजन, पठन/पाठन होता रहता है। 6. आयर्वेद विषयक ग्रंथ रचना में जैनाचार्यों की रुचि का एक और कारण सामान्यत: यह दिखाई देता है कि प्राचीन भारतीय अध्ययन पद्धति की यह विशेषता रही है कि उसमें एक शास्त्र ज्ञान की अपेक्षा बहुशास्त्र ज्ञान पर अधिक जोर दिया गया है। आचार्य कहते हैं20 - एकं शास्त्रमधीयानो न विद्याचशास्त्रनिश्चयम्। तस्माद्बहुश्रुत: शास्त्रं जानीयात्.......... || अर्थात् विषय या शास्त्र की पूर्णज्ञेयता व शास्त्र के विनिश्चय के लिये अन्य शास्त्रों का अध्ययन और साधिकार ज्ञान अपेक्षित है। इसी कारण जैनाचार्यों ने अध्यात्म विद्या के साथ - साथ धर्म, दर्शन, न्याय, व्याकरण, छंद, अलंकार, नीतिशास्त्र, आचारशास्त्र, ज्योतिष के साथ - साथ आयुर्वेद विषय पर विशाल साहित्य सृजन कर अपने ज्ञान और बुद्धि कौशल को उजागर किया। उपरोक्त बिन्दु जैनाचार्यों द्वारा आयुर्वेद ग्रंथ रचना के कारणों को एक सीमा तक स्पष्ट करते हैं। अर्हत् वचन, जुलाई 2000
SR No.526547
Book TitleArhat Vachan 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy