SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन आयुर्वेद चिकित्सा / साहित्य की विशेषताएँ - जैनाचार्यों ने जिन प्रमुख आयुर्वेद विषयक ग्रंथों की रचना की उसमें वर्णित आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति या आयुर्वेद साहित्य की अपनी मौलिक विशेषताएँ हैं और ये मौलिक विशेषताएँ इतर आयुर्वेद साहित्य से जैन आयुर्वेद साहित्य को अलग करतीं हैं। जो निम्न हैं1. जैनाचार्यों ने आयुर्वेद विषयक जिन ग्रंथों की रचना की उनमें पूर्णतः जैन सिद्धान्तों का व धार्मिक नियमों का परिपालन किया है। अहिंसावादी होने के कारण जैन आचार्यों ने शवच्छेदन प्रणाली व शल्य चिकित्सा को हिंसक मानते हुए इस पद्धति को नहीं अपनाया, जबकि वैदिक साहित्य, बौद्ध साहित्य में ( कुछ मात्रा में) शल्य क्रिया व शवच्छेदन पद्धति का प्रमुखता से प्रयोग दिखाई देता है। पद्मानन्द महाकाव्य में 21 एक जैन मुनि के कुष्ट रोग उपचार का महत्वपूर्ण उल्लेख प्राप्त होता है, जिसमें मुनि के द्वारा कुपथ्यसेवन से यह रोग उत्पन्न हुआ था यथा 3. : 2. जैन आयुर्वेद साहित्य में जहाँ शल्यचिकित्सा को नहीं अपनाया गया या जहाँ कहीं भी थोड़ा-बहुत अपनाया गया वहाँ हिंसा न हो इस बात का ध्यान रखा गया। वहीं रसयोगों जैसे पारद से निर्मित धातुयुक्त व भस्मों एवं सिद्धयोगों का अधिकांश प्रयोग किया गया है। इस पद्धति को हम विभिन्न जैन प्राचीन आयुर्वेदिक ग्रंथों में देख सकते हैं। इसका वर्णन मैंने शोध प्रबन्ध में किया है। चारित्रणावित्र्यकृते काले, कुपथ्य भोज्यात् कृमिकुष्ठरोगी। (पद्मा. 6.37 ) - औषधि न ग्रहण करने के प्रमाद तथा कोढ़ से व्याप्त कीटाणुओं की हत्या हो जाने के भय से जैन मुनि का इस रोग के उपचार के प्रति उपेक्षाभाव रहा था । ऐसे में अहिंसात्मक शल्यचिकित्सा विधि का प्रयोग किया गया। जिसमें सर्वप्रथम जैन मुनि के सभी अंगों की तेल से मालिश की गई | 22 तदन्तर कुष्ठ रोग विनाशक उष्ण तेल को मला गया। 23 निरन्तर तेल की मालिश करते रहने के कारण उष्ण हुए शरीर में से सभी कुष्ठ रोग के कीड़े बाहर निकलने लगे। तापशमनार्थ मुनि के शरीर को शीतल मणिकम्बल से लपेट दिया गया। तेल की ऊष्मा से मणिकम्बल में कीड़े निकलते रहे तथा धीरे - धीरे उस कम्बल में पड़े कीड़ों को एकत्र करके गाय के शव में डालते रहे। इस प्रकार चिकित्सकों की यह पूरी चेष्टा रही कि कुष्ठ रोग की चिकित्सा करते हुए रोग के कीटाणुओं की मृत्यु न हो तथा वे गोशव में स्थानान्तरित होकर जीवित बचे रहें । ताप के अधिक बढ़ जाने पर बीच बीच में गोशीर्ष चन्दन का लेप भी किया जाता रहा। इस पूरी प्रक्रिया को तीन बार दोहराया गया। तीसरी बार तक शरीर के समस्त कीड़े बाहर निकलकर गोशव में पुनः विस्थापित कर दिये गये थे | 24 इस प्रकार जैन मुनि के कुष्ठ रोग का निवारण बिना जीव हत्या के हुई शल्य चिकित्सा द्वारा संभव हो पाया। शल्य चिकित्सा की इस विधि के उदाहरण से स्पष्ट होता है कि जैनाचार्यों ने हिंसा न हो और रोगोपचार हो जावे इस बात का ध्यान बड़ी सूक्ष्मतापूर्वक रखा। यह घटना किसी श्वे. परम्परा के मुनि की प्रतीत होती है। 14 जैन, विद्वानों, आचार्यों ने वात-पित्त के लिये नाड़ी परीक्षा, मूत्र परीक्षा आदि को यह उनके द्वारा इन विषयों पर निर्मित ग्रंथों से स्पष्ट होता है। - आधार पर होने वाले रोगों के निदान के विशेष रूप से महत्व व प्रश्रय दिया है। 4. जैनाचार्यों ने चिकित्सा में मद्य, मांस, मधु के प्रयोगों का सर्वथा निषेध किया है i क्योंकि इनके प्रयोगों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अनेक प्राणियों की हिंसा होती है। अर्हत् वचन, जुलाई 2000
SR No.526547
Book TitleArhat Vachan 2000 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy