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क्या संबंध है। आयुर्वेद उतना ही प्राचीन है जितना कि मानव अस्तित्व। जैन साहित्य में आयुर्वेद विषयक सामग्री भरी पड़ी है। विभिन्न जैनाचार्यों ने इस पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की, जिनका विस्तृत वर्णन लेखिका ने अपने शोध प्रबन्ध 'आयुर्वेद के विकास में जैनाचार्यों का योगदान - वैदिक काल से 17 वीं श. तक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में के अध्याय 4 एवं अध्याय 5 में किया है। इस शोध लेख में उनकी सूची प्रस्तुत की जा रही है। (देखें सारणी - 3) जिससे पाठकों को स्वतः स्पष्ट हो जायेगा कि जैनधर्म और आयुर्वेद का कितना घनिष्ठ सम्बन्ध है एवं कितना महत्व है, जो आज तक अध्ययन के क्षेत्र में उपेक्षित रहा है।
इस विवरण से यह तो स्पष्ट हो गया कि जैन धर्म/दर्शन / इतिहास का महत्वपूर्ण स्थान है। लेकिन वहीं प्रश्न यह खड़ा होता है कि जैन आचार्यों / मुनियों, जिनका उद्देश्य आत्मकल्याण के लिये त्याग, तपस्या करना, संसार के मोह - बन्धनों से मुक्त रहना है, उन्होंने आयुर्वेद जैसे विषय पर इतनी विशालता, प्रगाढ़ता, विद्वत्ता के साथ अपनी लेखनी क्यों चलाई? इस विषय में उनकी रूचि का क्या कारण था? इन महत्वपूर्ण, शंकास्पद प्रश्नों के समाधान हेतु निम्न बिन्दुओं की ओर ध्यान देना आवश्यक होगा तभी उक्त प्रश्न का समाधान हो सकता है। जैनाचार्यों द्वारा आयुर्वेद विषय पर ग्रंथ रचना का कारण :1. यह सर्वविदित है कि जैनाचार्यों ने धर्म / दर्शन / साहित्य / कला के क्षेत्र में अपने अद्वितीय
योगदान के द्वारा भारतीय संस्कृति के स्वरूप को विकसित करने के साथ-साथ मानव - मात्र के प्रति कल्याण का मार्ग भी प्रशस्त किया है। यही कारण है कि जैनाचार्यों ने लोकहित की भावना को ध्यान में रखते हुए साहित्य सृजन किया है। आयुर्वेद विषयक ग्रंथों की रचना का उद्देश्य भी कोई व्यक्तिगत स्वार्थ या धन कमाना न होकर [क्योंकि
जैन मुनि अर्थ (धन) से विरक्त रहते हैं।] लोककल्याण की भावना थी। 2. जैन मुनि सांसारिक आसक्ति से शून्य होने के कारण आत्मकल्याण के साथ - साथ परमार्थ
साधना के रूप में भी साहित्य सृजन का कार्य करते थे। यही कारण है कि उन्होंने अपने अनुभवों, ज्ञान से जिन वैद्यक - ग्रंथों की रचना की वे मानव, समाज, देश, संस्कृति के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण और उपकारी हैं अर्थात् जैनाचार्यों द्वारा वैद्यक ग्रंथों की रचना का प्रमुख कारण 'जन - उपकार' रहा। जैनाचार्यों का प्रमुख कार्य तप (त्याग) साधना रहा है। अत: जैन मनीषी, आचार्य धर्मसाधना के लिये शरीर रक्षा को बहुत महत्व देते थे। वृहत्कल्पभाष्य की वृत्ति में उल्लेख है -
शरीरं धर्मसंयुक्तं रक्षणीयं प्रयत्नतः।
शरीरच्छ्रवते धर्म: पर्वतात् सलिलं यथा॥ अर्थात् "जैसे पर्वत से जल प्रवाहित होता है वैसे ही शरीर से धर्म प्रभावित होता है। अतएव धर्मयुक्त शरीर की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये।" इस प्रकार शरीर रक्षा में सावधान जैन साधु यदि कभी भी थोड़ा बहुत भी रोगग्रस्त हों तो वे व्याधियों के उपचार की कला विधिवत् जानते थे। अत: धर्मसाधना के लिये भी जैनाचार्यों ने आयुर्वेद साहित्य का सृजन किया। आयुर्वेद की आवश्यकता के विषय में उल्लेख है कि चाहे अभ्युदय प्राप्त करना हो या निःश्रेयस्। दोनों की प्रप्ति के लिये मानव शरीर
अर्हत् वचन, जुलाई 2000