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गतिविधियाँ दिगम्बर जैन उदासीन आश्रम में इन्द्रध्वज महामण्डल विधान
श्री दिगम्बर जैन उदासीन आश्रम, इन्दौर में इन्द्रध्वज महामंडल विधान का 10 दिवसीय आयोजन पं. श्री रतनलालजी शास्त्री के मार्गदर्शन एवं प्रतिष्ठाचार्य ब्र. अनिलजी, ब्र. अभयजी एवं ब्र. अजितजी के सान्निध्य में 11 से 20 फरवरी के मध्य सानंद सम्पन्न हुआ। अंतिम दिन विश्वशांति के उद्देश्य हेतु आहुतियाँ दी गईं।
यह विधान आश्रम में विधानाचार्य पं. रतनलालजी शास्त्री मंडल का अवलोकन करते हुए साधनारत ब्र. फूलचन्दजी गंगाधर (अहमदाबाद वाले) एवं उनके परिवार की ओर से कराया गया। इसमें प्रमु
प्रमुख रूप से इन्द्र - इन्द्राणी के रूप में श्री निर्मलकुमारजी जैन, श्री श्रीकृष्णजी जैन (जज साहब), श्री हीरालालजी गोधा आदि 21 जोड़ों ने पूजा में भाग लिया और अपने तन-मन-धन का अमल्य योगदान दिया। दिगम्बर जैन श्राविकाश्रम की समस्त ब्रह्मचारिणी बहिनों ने भी इसमें उत्साहपूर्वक भाग लिया। पूज्य गणिनी ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित विधान की काव्यात्मकता एवं संगीतमयी पूजन ने सभी को भावविभोर कर श्रद्धा से ओतप्रोत कर दिया।
सम्मान समारोह में पं. रतनलालजी विधानाचार्य, ब्र. अनिलजी, ब्र. अभयजी को
समर्पित कर सम्मानित किया गया। साथ ही आश्रमस्थ समस्त ब्रह्मचारिणी बहिनों को भी श्रीफल एवं शास्त्र सम्मानार्थ प्रदान किये गये।
पं. रतनलालजी शास्त्री ने अपने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि मानव को अपने जीवन से व्यसन जैसी बुरी आदतों को दूर करना चाहिये। उन्होंने पांडवों का उदाहरण देते हुए कहा कि जुआ खेलने के फलस्वरूप उन्हें 12 वर्ष के लिये वन जाना पड़ा एवं कष्ट सहन करना पड़ा, यहाँ तक कि अपने राज्य एवं पत्नी को भी खोना पड़ा।
श्रीकृष्णजी जैन, जज साहब ने अपने उद्बोधन में सभी को बताया कि यदि कोई ऐसा स्थान है जहाँ श्रावक षट् आवश्यकों को सही रीति से पालन कर सके तो वह है श्री दि. जैन उदासीन आश्रम। यहाँ मैं विगत ढ़ाई वर्षों से निरन्तर पूजन, स्वाध्याय आदि कर रहा हूँ। ब्रह्मचारिणी बहिन अनीता एवं चन्द्रलेखाजी ने सभी को सम्बोधित करते हुए कहा कि हमें गुणों की पूजन तथा गुणीजनों का सम्मान अवश्य करना चाहिये।
हवन में आहूति देते हुए ब्रह्मचारी अनिलजी ने हवन का महत्व बताया और संसारी प्राणी को क्रमश: भावों की विशुद्धि पूर्वक मोक्ष तक की यात्रा सुगम रीति से करने की विधि बताई। हवन के उपरान्त सभी धर्म बन्धुओं के सामूहिक भोजन का आयोजन रखा गया।
अर्हत् वचन, जनवरी 2000
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