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________________ अर्हत् वच कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर प्रतिवेदन तृतीय विराट राष्ट्रीय वैज्ञानिक संगोष्ठी झाडोल, 21.11.99 से 25.11.99 ■ श्रीमती गुणमाला जैन प्राचीन काल में भारतवर्ष विश्वगुरु के नाम से विख्यात रहा है। ज्ञान, विज्ञान, धर्म, दर्शन, कला आदि क्षेत्रों में भारत ने प्राचीन काल में श्रेष्ठतम मनीषियों, विद्वानों चिन्तकों के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व को जीवन के प्रत्येक आयाम पर सुस्पष्ट मौलिक चिन्तन दिया। विदेशी जिज्ञासुओं की, ज्ञान-विज्ञान प्राप्ति हेतु तथा शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिये भारत में उपस्थिति भी यही सिद्ध करती है । परन्तु भौगोलिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक कारणों से विश्वगुरु का गौरवमयी पद शनै: शनै: समाप्त हो गया। स्वतंत्रता प्राप्त करने के पश्चात् भी विदेशी ज्ञान विज्ञान को ही हम कब तक आदर्श मान कर बैठे रहेंगे । यह चिन्ता आचार्यरत्न श्री कनकनन्दीजी विगत वर्षों से अनुभव कर रहे थे। गहनतम शोध, चिंतन, विचार-विमर्श के पश्चात् आपने अथक व अनवरत प्रयासों से 'सर्वोदय शिक्षा मनोविज्ञान' पुस्तक की रचना की जिसके द्वारा भारत की गरिमा को सुदृढ़ व पुनर्जीवित किया जा सके। इस सन्दर्भ में दिनांक 21.11.99 से 25.11.99 तक उदयपुर के झाडोल ( सराड़ा) में धर्म दर्शन - विज्ञान शोध संस्थान के तत्वावधान में राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की जिसमें लगभग 30 विषय विशेषज्ञ वैज्ञानिक, अनुसंधानार्थी प्रोफेसर्स व विद्वानों ने 12 सत्रों में 20 शोधपत्र प्रस्तुत किये। इस संगोष्ठी का उद्देश्य था कि वर्तमान शिक्षा पद्धति में भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों व दर्शन के तत्वों का समावेश कर विद्यार्थियों में सुसंस्कारित भावना, राष्ट्रीय चारित्र, आत्म गौरव व स्वावलम्बन की भावना का विकास किया जा सके। संगोष्ठी में शिक्षा सुधार हेतु निम्न संस्तुतियाँ की गई - 1. बालकों के शैक्षणिक कैरियर का चयन उनके मनोविज्ञान के आधार पर होना चाहिये। इस हेतु बालक जब पहली कक्षा का विद्यार्थी हो, तब से लेकर 5 वीं कक्षा तक उसका मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया जाये। अन्ततः इस अध्ययन के आधार पर बालक की चाह के विषय पर पढ़ने हेतु अग्रसर करना चाहिये। यद्यपि कक्षा 10 तक सभी विषय पढ़ाये जावें परन्तु उसके चयनित विषय विशेष रूप से पढ़ाये जायें। कक्षा 11 से केवल ऐच्छिक विषय को इस प्रकार से पढ़ाया जाये कि बालक इस क्षेत्र में विशेषज्ञ बन सके। इसके आधार पर राष्ट्र में, प्रत्येक क्षेत्र में विशेषज्ञता प्राप्त व्यक्ति मानव शक्ति हो जायेगी तथा वह व्यक्ति अपना रोजगार स्वयं प्राप्त कर सकता है। 2. शिक्षा से सम्बन्धित विभिन्न स्तरों के विभिन्न पाठ्यक्रमों में भारतीय संस्कृति, विशेषकर प्राचीन भारतीय संस्कृति को सम्मिलित किया जाये जिससे छात्रों को महान परम्पराओं, ऋषियों, संतों, वैज्ञानिकों व चिंतकों का ज्ञान प्रदान किया जा सके। 3. वर्तमान समय में चारों ओर नैतिक पतन की पराकाष्ठा दृष्टिगत होती है। राष्ट्र के उज्जवल भविष्य के लिये यह हम सबकी चिंता का विषय है। अत: किशोर कोमल मस्तिष्क पर सुसंस्कारों, नैतिकता एवं मानवीय मूल्यों को उनके व्यक्तित्व में प्रविष्ट किया जा सके तब यह शिक्षा की महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी। अतः मत निर्धारित किया गया कि नैतिकता एवं मूल्यों जैसे अमूर्त गुणों को मात्र पुस्तकीय अध्ययन एवं कक्षा की चहारदीवारी के अन्दर सीमित नहीं रखा जा सकता, अतः अध्यापक का व्यवहार पक्ष नैतिक व चारित्र पक्ष का सुदृढ़ होना आवश्यक है। 4. शिक्षकों का चयन ज्ञान, नैतिकता व संस्कारों के आधार पर हो तथा उन्हें पृथक से कुछ समय प्रशिक्षण दिया जाये। समय-समय पर मूल्यांकन करके जवाबदेही भी तय की जाये । 5. पूर्व में भारत के कमजोर सामाजिक आर्थिक ( Socio-Economic) ढांचे के फलस्वरूप शिक्षा का स्तर गिरता चला गया। सर्वविदित तथ्य के संदर्भ में यह अनुभव किया गया कि अब शिक्षा ही हमारे सामाजिक-आर्थिक ढांचे को मजबूत कर सकती है। परन्तु इस हेतु शिक्षा नीति के वर्तमान स्वरूप में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा। अर्हत् वचन, जनवरी 2000 87
SR No.526545
Book TitleArhat Vachan 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size24 MB
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