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- पद्मश्री डा. लक्ष्मीनारायण दुबे ने कहा कि डा. हीरालाल जैन ने हिन्दी को विश्वभाषा, राष्ट्रभाषा बनाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है। तुलनात्मक अध्ययन की परम्परा डा. हीरालाल जैन की ही देन है। पारिभाषिक शब्दों, वैज्ञानिक एवं तकनीकी टिप्पणियों का समायोजन उनकी विद्वत्ता के परिचायक हैं। इन सब आयामों को देखने एवं प्रचलित करने की आवश्यकता है।
दोपहर 1 बजे से इसी सभा भवन में 'श्रुत संवर्द्धन संस्थान, मेरठ' द्वारा 5 सारस्वत साधकों को भव्य रूप में सम्मानित किया गया। इस पुरस्कार योजना के संयोजक युवा विद्वान डा. अनुपम जैन थे। (इसकी आख्या हेतु देखें - अर्हत् वचन 11 (4), अक्टूबर - दिसम्बर 99, पृ. 77 - 78)
दिनांक 21.11.99 को पुन: पंचम शोध सत्र सुबह 8.30 पर आरम्भ हआ। डा. जैन के व्यक्तित्व को रेखांकित करते हुए डा. अभयप्रकाश जैन, ग्वालियर ने कहा कि हीरालाल जैन एक ऐसा हीरा जैसा व्यक्तित्व है जिसका फैलाव चारों ओर है। विभिन्न विदेशी लेखकों एवं विद्वानों से उनका सतत सम्पर्क एवं पत्राचार रहा है।
इस सत्र में डा. हीरालाल जैन पर एक डाक टिकिट जारी करने का भी प्रस्ताव पारित किया गया। दोपहर 1 बजे से पुन: उपाध्यायश्री के सान्निध्य में अन्तरंग चर्चा विद्वानों की हुई जिसमें डा. हीरालाल जैन स्मृति ग्रंथ प्रकाशन का प्रस्ताव उपाध्यायश्री के चरणों में निवेदित किया गया एवं उनके अप्रकाशित साहित्य तथा प्रकाशित आलेखो का पुस्तिका के रूप में प्रकाशन आदि विषयों पर विचार - विमर्श हुआ।
सायंकाल 3 बजे से समापन सत्र आरम्भ हआ जिसकी अध्यक्षता राजस्थान वि.वि. के कुलपति डा. के.एल. कमल साहब ने की एवं मुख्य आतिथ्य श्री महावीर शरणजी, निदेशक - हिन्दी संस्थान, आगरा ने किया। डा. महावीरशरणजी ने अपने उद्बोदन में कहा कि एक बिन्दु तक कहानी हम बनाते हैं फिर कहानी हमें बनाती है। क्या उसकी पहचान हमें आती है? यह पंक्तियाँ डा. हीरालाल जैन के सम्बन्ध में विचारणीय हैं। उनका व्यक्तित्व उर्ध्वगामी चेतना का प्रमाण है। वे अवसरवादी परम्परा नहीं उदारवादी परम्परा की प्रतिमूर्ति हैं।
अध्यक्षीय आसंदी से उदबोधन देते हए कलपति डा. के एल. कमल ने कहा कि बद्धिजीवी पूर्ण नहीं होता है, वीतरागी ही पूर्ण होता है। जनतन्त्र की रक्षा केवल अनेकान्तवाद से हो सकती है। उन्होंने विद्वानों से आग्रह किया कि आप विश्वविद्यालय में भी एक राष्ट्रीय संगोष्ठी डा. हीरालाल जैन पर आयोजित करें। उन्होंने राजस्थान वि.वि. में अहिंसा और शांति पीठ की स्थापना करने की भी घोषणा की।
समापन सत्र पर उद्बोधित करते हुए उपाध्यायश्री ने कहा कि इस राष्ट्रीय संगोष्ठी का यह समापन नहीं उदघाटन है। इससे एक नई चेतना एवं स्फूर्ति मन को प्राप्त हुई है। कुलपतिजी की घोषणा से तो ऐसा लगता है कि अब तो संगोष्ठी का उदघाटन हुआ है। डा. हीरालाल जैन ज्ञान
और आचरण के समन्वय की प्रतिमूर्ति थे। उनका जीवन अनेकान्त से प्रभावित था। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से जनमानस को परिचित कराना अत्यन्त आवश्यक है जिससे कि नई पीढ़ी को भी उनके त्याग एवं साहित्यिक लगन से कुछ प्रेरणा मिले एवं माँ जिनवाणी की सेवा कर सकें।
त्रिदिवसीय इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में देश के कोने-कोने से आकर विद्वानों ने इस ज्ञानयज्ञ में अपनी आहुतियाँ दी।
* सहायक प्राध्यापिका - संस्कृत, महारानी लक्ष्मीबाई शास. कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय,
ग्वालियर
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अर्हत् वचन, जनवरी 2000