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________________ ग्रंथ है। विश्व अकादमिक समुदाय को आपने इस षट्खण्डागम सहित 27 ग्रन्थों एवं लगभग 14000 पृष्ठों की जो सामग्री उपलब्ध कराई है उसमें से मैं केवल एक विषय का स्पर्श कर रहा हूँ। गणित का विद्यार्थी होने के नाते यह मेरे लिये अधिक सरल, सहज और समीचीन भी है कि मैं जैन गणित के विकास, उद्धार एवं अध्ययन के क्षेत्र में डॉ. हीरालाल जैन के अवदान की ओर विद्वत् समुदाय का ध्यान आकर्षित करूँ। यह सत्य है कि बहुत समय तक लोग जैन धर्म को हिन्दू समाज की ही शाखा मानते थे। इस कारण जैन गणित को अलग से मान्यता नहीं मिली किन्तु यह भी सत्य है कि विशुद्ध रूप से जैन गणित की कोई कृति सर्वप्रथम 1908 में David Eugen Smith द्वारा गणितसार संग्रह की पांडुलिपि प्राप्त होने की सूचना से पहले प्रकाश में नहीं आई थी। 1912 में प्रो. एम. रंगाचार्य द्वारा किये गये अंग्रेजी अनुवाद तथा उन्हीं के द्वारा सम्पादित गणितसार संग्रह का मद्रास गवर्नमेन्ट द्वारा प्रकाशन किया गया। लेकिन उसके बाद जैनाचार्यों द्वारा गणित के विकास में दिये गये योगदान को प्रकाश में लाने का काम अवरूद्ध हो गया। कलकत्ता वि.वि. के प्राध्यापक प्रो. विभूतिभूषण दत्त, जो बाद में हिन्दू परम्परा में दीक्षित होकर मुख्यत: अजमेर के समीप पुष्कर तीर्थ में स्वामी विद्यारण्य बनकर (1933 - 1958) रहे थे, ने हिन्दू गणित शास्त्र के इतिहास के लेखनक्रम में लिखे गये आलेख The Jaina School of Mathematicss में उत्तराध्ययन सूत्र, अनुयोगद्वार सूत्र, स्थानांग सूत्र, त्रिलोकसार आदि ग्रंथों को आधार बनाया। डॉ. हीरालाल जैन ने सर्वप्रथम लखनऊ वि.वि. के प्राध्यापक एवं गणित विभागाध्यक्ष प्रो. अवधेशनारायण सिंह को धवला पुस्तक - 3 (द्रव्यप्रमाणानुगम) में निहित गणित का विशेष अध्ययन करने की प्रेरणा दी और उसी के प्रतिफल के रूप में Mathematics of Dhavala लेख प्रकाश में आया। यह लेख धवला पुस्तक -4 तथा इसका हिन्दी अनुवाद धवला पुस्तक-5 में प्रकाशित हआ है। डॉ. हीरालाल जैन के ही प्रयासों का प्रतिफल था कि प्रो. ए. एन. सिंह जैसे चोटी के गणितज्ञ द्वारा लिखित 'भारतीय गणित इतिहास के जैन स्रोत'' शीर्षक आलेख प्रकाश में आया। 1945 में तिलोयपण्णति का प्रकाशन भी जैन धर्म एवं साहित्य की एक विशिष्ट घटना है। डॉ. जैन ने उन दिनों नागपुर / जबलपुर में कार्यरत जैन गणित के सुप्रसिद्ध विद्वान प्रो. लक्ष्मीचन्द जैन को तिलोयपण्णति के दो भागों में निहित गणित के अध्ययन की प्रेरणा दी और तिलोयपण्णति का गणित शीर्षक 104 पृष्ठीय विस्तृत आलेख, जो जम्बूदीवपण्णतिसंगहो (1958) ग्रंथ के साथ प्रकाशित हुआ, लिखा गया। लगभग 1952 में प्रो. हीरालाल जैन ने प्रो. लक्ष्मीचन्द जैन को विगत अनेक वर्षों से अनुपलब्ध आचार्य महावीर (850 ई.) कृत गणितसार संग्रह के हिन्दी अनुवाद की प्रेरणा दी। आज प्रो. लक्ष्मीचन्द जैन की लेखनी से हमें जैन गणित से सम्बद्ध लगभग सौ आलेख प्राप्त हुए हैं जो देश - विदेश के पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं लेकिन प्रयक्त गणित (Applied Mathematics) के इस विद्वान को जैन गणित के अध्ययन की ओर उन्मुख करने का श्रेय यदि किसी को जाता है तो निर्विवाद रूप से डॉ. हीरालाल जैन को जाता है। शायद यदि डॉ. जैन, प्रो. बी. बी. दत्त एवं प्रो. एल. सी. जैन को जैन गणित के अध्ययन की ओर प्रवृत्त न करते तो जैन गणित के नाम पर हमें केवल स्थानांग सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, अनुयोगद्वार सूत्र, जम्बूदीप प्रज्ञप्ति, तत्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य, जैसे श्वेताम्बर परम्परा के ग्रंथों में निहित गणित ही प्राप्त होता एवं दिगम्बर जैन परम्परा के प्राचीन आगम ग्रंथों में लोक के स्वरूप के विवेचन तथा कर्म सिद्धान्त की व्याख्या में सरल, सहज रूप में आये उत्कृष्ट गणित से आज के गणित इतिहासज्ञ वंचित रह जाते। डॉ. 44 अर्हत् वचन, जनवरी 2000
SR No.526545
Book TitleArhat Vachan 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size24 MB
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