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________________ अर्हत् वचन कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर वर्ष - 12, अंक - 1, जनवरी 2000, 29 - 38 महामंत्र णमोकार : एक तात्विक एवं वैज्ञानिक विवेचन - दयाचन्द जैन* भारतीय संस्कृति और साहित्य में मंत्र शास्त्र का महत्वपूर्ण स्थान है, उसके अन्तर्गत जैन मंत्र शास्त्र का भी उल्लेखनीय अस्तित्व सुरक्षित है। जैन शास्त्रों में हजारों - लाखों मंत्रों का उल्लेख और उनके यथास्थान प्रयोग दर्शाए गये हैं। शुद्ध मंत्रों की साधना से मानव जन्म - मरण, द्रव्यकर्म (ज्ञानावरण आदि), भावकर्म (राग, द्वेष, मोहादि), और शरीर आदि के अनन्त दु:खों को विनष्ट कर, अशुद्ध आत्मा से परमात्मा बन जाता है यह मंत्रों का परमार्थ सुफल है। इसके अतिरिक्त शुद्ध मंत्रों की साधना से विषनाश, रोगनाश, अतिशय सिद्धि, वशीकरण आदि लौकिक फल भी सिद्ध हो जाते हैं। व्याकरण से मंत्र शब्द की सिद्धि - 1. प्रथम सिद्धि - दिनादिगणी मन् (ज्ञाने) धातु से ष्ट्रन (त्र - शेष) प्रत्यय का योग करने पर मंत्र शब्द सिद्ध होता है। इसकी व्युत्पत्ति - 'मन्यते - ज्ञायते आत्मादेश: अनेन इति मन्त्रः' अर्थात् जिसके द्वारा आत्मा का निज अनुभव या स्वरूप जाना जाता है, उसे मंत्र कहते हैं। 2. द्वितीय सिद्धि - तनादिगणी मन् (अवबोधे) धातु से ष्ट्रन (त्र- शेष) प्रत्यय करने पर मंत्र शब्द सिद्ध होता है, इसकी व्युत्पत्ति - 'मन्यते विचार्यते आत्मादेशो येन स इति मंत्र' अर्थात् जिसके द्वारा आत्मबल या रत्नत्रय पर विचार किया जाय वह मंत्र कहा जाता है। 3. तृतीय सिद्धि - सम्मानार्थकं मन् धातु से ष्ट्रन (त्र - शेष) प्रत्यय करने पर मंत्र शब्द सिद्ध होता है। तदनुसार व्युत्पत्ति - 'मन्यन्ते - सक्रियन्ते परमपदे स्थिता: आत्मानः, यक्षादिशासनदेवता वा अनेन इति मंत्र' अर्थात् जिसके द्वारा पंचपरमेष्ठी आत्माओं का अथवा यक्ष आदि शासन देवों का सम्मान किया जाय वह मंत्र कहा जाता है। इस प्रकार मंत्र शब्द और उसका सार्थक नाम सिद्ध होता है। व्याकरण सूत्र - "सर्वधातुभ्य: ष्ट्रन' अर्थात् सर्वधातुओं से यथायोग्य धातु के अर्थ में ष्ट्रन (त्र - शेष) प्रत्यय होता है।' ___ मंत्र हजारों एवं लाखों की गणना में होते हैं उन सब में णमोकार मंत्र विशिष्ट एवं अद्वितीय स्थान प्राप्त करता है। उस परम पवित्र मंत्र का उल्लेख इस प्रकार है - णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ।। 1 ।। श्री 108 धरसेनाचार्य के मुख्य शिष्य, मंत्र शास्त्र वेत्ता श्री 108 पुष्पदन्त आचार्य ने शौरसेनी प्राकृत भाषा में इस महामंत्र की रचनाकर विश्व का उपकार किया है। इसमें 5 पद (चरण), 35 अक्षर और 58 मात्राएँ विद्यमान हैं। इस आर्याछन्द में पंच परमेष्ठी परम देवों को सामान्य पदों के प्रयोग से नमस्कार किया गया है जो अनन्त पूज्य आत्माओं का द्योतक है। यह महामंत्र अंकलेश्वर (गुजरात) में चातुर्मास व्यतीत करने के बाद पुष्पदन्त आचार्य ने वनवास देश (उत्तर कर्नाटक का प्राचीन नाम) में बी.नि. सं. 633 के आसपास * प्राचार्य एवं अधीक्षक, श्री गणेश दि. जैन संस्कृत महाविद्यालय, सागर - 470002 (म.प्र.) .
SR No.526545
Book TitleArhat Vachan 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnupam Jain
PublisherKundkund Gyanpith Indore
Publication Year2000
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Arhat Vachan, & India
File Size24 MB
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