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दोष लगता है और इसके फलस्वरूप उस समाज को भी अप्रमाणिक होने का दोष लगता
मैं जैन धर्म और पुरातत्व का स्वयं पाठक हूँ, अनन्य प्रेमी हूँ किन्तु अन्धभक्त नहीं। मेरी कामना है कि जैन धर्म का परिचय सभी देशों से मिले किन्तु प्रामाणिकता के आधार पर, उसी से सत्य इतिहास की परम्परा बनी रहती है। आप स्वयं विद्वान हैं, आशा है आप शोध - खोज की दृष्टि से इसको देखेंगे।
____डॉ. जिनेश्वर दास पुरातत्वविज्ञ नहीं है, इंजीनियर हैं। इस तथ्य को भी दृष्टि में रखें। डॉ. गोकुलप्रसाद जैन ने भी अपनी पुस्तक 'विदेशों में जैन धर्म' में प्रमाण को आधार नहीं बनाया है। वह भी इतिहासकार नहीं हैं। - हमकों ऐसी असावधानियों से परामुख नहीं होना चाहिये। जैन धर्म सत्य और प्रामाणिकता के लिये विश्वप्रसिद्ध है। अपने तथा विद्वत्जनों के विचारों से इस मूर्ति के विषय में निश्चित . ही अवगत करायें कि तीर्थंकर मूर्ति है या नहीं। 24.8.99
- सतीश कुमार जैन सम्पादक - अहिंसा वायस, नई दिल्ली
जुलाई 99 अंक प्राप्त हुआ। श्री लालचन्द्र जैन 'राकेश' का 'जैन भूगोल : वैज्ञानिक सन्दर्भ' लेख काफी रोचक लगा, इस सम्बन्ध में मैं अपने कुछ विचार प्रकट करता हूँ।
प्रथम पैरे में लिखा है - "कुछ विज्ञानान्धजनों का धर्म के प्रति रूझान दिनों दिन कम होता जा रहा है।' मेरे विचार से 'विज्ञान' तो विशेष - ज्ञान को कह सकते हैं। इससे तो अंध विश्वास को दूर करने में सहायता ही मिली है। एक वैज्ञानिक हमेशा सत्य की खोज में लीन रहता है, विभिन्न अथवा परस्पर विरोधी देशों के वैज्ञानिक भी एक है के सत्यान्वेषण व सिद्धान्तों की प्रशंसा करते देखे जाते हैं, पर एक ही देश के विभिन्न धर्मानुरागी एक दूसरे के कट्टर शत्रु भी देखे जा रहे हैं।
वैज्ञानिक समय - समय पर World Level Conference करके अपने आपस की मान्यताओं पर वादविवाद कर संशोधन करते रहते हैं, पर धार्मिक कट्टरवादी एक दूसरे को प्राय: नीचा ही दिखाते रहते हैं। धार्मिक कट्टरवादी धर्म के आधार पर जातियों का निर्माण कर उन्हें आपस में लड़ने को मजबूर करते हैं पर वैज्ञानिकों की कोई जाति अलग से नहीं होती, जातिगत भेद उनमें नहीं है। हाँ, वैज्ञानिक खोजों का राजनीतिज्ञ लोग दुरुपयोग करते हैं, इसमें वैज्ञानिकों का कोई दोष नहीं। इतिहास बताता है कि आजतक जितनी भी लड़ाइयाँ हई हैं, वे प्राय: धर्मान्ध या कट्टर जातिवादी लोगों द्वारा ही लड़ी गई हैं।
आज संसार बारूद के ढेर पर बैठा हुआ है, परस्पर विरोधी देशों और राजनीतिज्ञों के पास हजारों अणुबम हैं, वे चाहें तो एक क्षण में संसार को नष्ट कर सकते हैं। पर इसके बावजूद जो शक्ति इनको वश में किये हए है वह ज्ञान और विवेक की शक्ति ही है अर्थात् वैज्ञानिक विचारधारा ही है जिससे यह सर्वनाश नहीं हो पा रहा है।
प्राचीन काल में जो भी सिद्धियाँ, विद्याएँ किन्हीं विशेष लोगों के पास ही सीमित थीं, वे अपनी विद्याएँ गुप्त ही रखते थे और अपने जीवन के बाद वे उन्हीं के साथ गायब हो गईं पर आज वैज्ञानिक अपनी उपलब्धियों की सत्यता पर पर्दा नहीं डालते, उन्हें पूरा प्रकाशित किया जाता है और दूसरों को भी पूरा - पूरा लाभ मिलता है, संसार आगे
अर्हत् वचन, अक्टूबर 99